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Showing posts from June, 2021

अवधी गीत

रहमानी चचा, रहमानी चचा अइसै जौ होई तौ का होई? बइठक कै बातचीत खाइस मोबाइल आँगन के माटी का खाय लिहिस टाइल लोकगीत खाय गये फिल्मन कै गाना कुर्ता औ धोती भा फैशन पुराना ऐसे जौ होई तो का होई? रमजानी चचा रमजानी चचा अंखियै जब फूटी तब के रोई गुम होइगे, हरवाह हर औ जुआठा लरिकन कुछ अउतै न बिगहा न काठा खेती किसानी भा घाटा कै सौदा नौकरियै हेरत हैं मौगी औ मौगा ऐसे जौ होई तो का होई रहिमानी चचा रहिमानी चचा तब अपने खेतवा का के बोई मजहब औ जाति एक सब भाई भाई कुछ नाशि काटे करावें लड़ाई तुहुका उलिहावैं फिर हमका उलिहावैं तब नेता सरवै तमाशा करावैं। ऐसे जौ होई तौ का होई रहिमानी चचा रहिमानी चचा लुल्ल भये सगरे तब का टोई। #चित्रगुप्त

ग़ज़ल

है ख़राबी इश्क में तो फिर ख़राबी ही सही है ए समझदारों जरूरत आपकी मुझको नही है। हुस्न से मतलब की बातें रह गये जो ढूढने में इश्क उनके ही लिए बस दूर की कौड़ी रही है। कुछ नहीं छोड़ा बुजुर्गों ने सुखन में कह गए सब ढूढ़ने जाऊं कहाँ हर बात पहले की कही है। जो लिया या जो दिया है सब हिसाबों में दिखेगा हो रही तैयार सबके वक्त की खाता बही है। कोई ज्यादा कोई थोड़ा हैं मगर नंगे सभी हैं दाग मेरे ढूढ़ता है यार तू भी तो वही है। #चित्रगुप्त

ग़ज़ल

दोस्त थे तो फ़र्ज़ भी थोड़ा निभाना चाहिए था जब गिरा था मैं कमसकम मुस्कुराना चाहिए था। दूर होना थी मेरी ग़लती अगर ये मान भी लूँ ये समझदारों तुम्हें तो पास आना चाहिए था। दूध का ढक्कन खुला रखना नहीं था हाँ मगर इन बिल्लियों को तो जरा सा शर्म खाना चाहिए था। नर्मो नाजुक बात तो कुछ थी हमारे बीच में भी कुछ नहीं होता तो अब तक भूल जाना चाहिए था। रूठना तो ठीक है पर कब तलक ये भी तो सोचो जब मनाने वो लगे थे मान जाना चाहिए था।

चे और बे

चे के जन्म दिन पर विशेष... "चे" हां "बे" "तूने अपना नाम क्यूबा वाले चे (ग्वेरा) के नाम पर रखा है न?" "हाँ तो?" "पर वो तो लिखने पढ़ने और लोगों को क्रांति के लिए प्रेरित करने में इतने व्यस्त रहते थे कि हफ़्तों तक नहाते नहीं थे पर तुम्हें तो नहाने के लिये गीजर वाला पानी  दीपिका वाला डब और  ब्रांडेड परफ्यूम चाहिए..." "(चे मुस्कुराते हुए)ये मॉडर्न जमाना है 'बे' अब के किरान्तिकारी ऐसे ही होते हैं" "अच्छा जंगल देखा है? असली वाले चे तो जंगल में ही रहते थे।" "जंगल ....? हां देखा है न, मोबाइल में टीवी पर कम्प्यूटर पर... पर हां हमारे बॉस तो जब ए सी कमरों में ब्रीफिंग लेते हैं तो कहते हैं किरान्ति की मार्केटिंग करनी है तो शहरों में आओ जंगल में कुछ नहीं रखा है। जंगल के लिये उन्होंने चरसी गंजेड़ी भंगेड़ी और बेवड़े अलग से पाल रखे हैं ...'' "शहरों को जंगल करने का और कोई ख़ास उद्देश्य...?" "अ'बे' यार... इतनी मीडिया कवरेज, इतनी मॉस, इतना फंडिंग वहाँ जंगल के लतखोरों से होगा क्या...?" तब तक विस

दोहे

दोहे **** जिस पुर्जे के साथ भी, सरकारी है भाय कितना कर्मठ हो कोई नाकारा हो जाय। बारी बारी देखिए, चित्रगुप्त को रोज लेकिन असली रूप को कोई सके न खोज। चुनना था तब चुन लिया, कंकर पत्थर खार टाट लिया फिर ढूढिये मलमल की सरकार। देखा मजहब जाति को करने में मतदान अब दुसवारी देखकर क्यों फटती है जान? बातों में हर बात की करो बाल की खाल ऊपर से उम्मीद भी सुधरेगा ये हाल। हर झगड़े के मूल में, है बस इतना जान हर मुद्दे पर ढूढ़ते रहे लाभ नुकसान कर्म शून्य जो हाँकते, आसमान की बात मानेंगे हर बात पर, खाकर घूसा लात। खेती करके बाँस की, गुड़ की है दरकार जैसी नीयत आपकी, वैसी है सरकार बिन मतलब कै दोस्ती, बिन पैसा के प्यार? वतनै मुश्किल है हियाँ, जस गादी कै बार #चित्रगुप्त 

ग़ज़ल

बिन तेरे यूं मंजिल और सफ़र लगता है। जैसे माँ के बिन बच्चे को घर लगता है। शोहरत पाकर उड़ने वालों मत भूलो ये जब मरना हो तब चींटी को पर लगता है। दिल के अंदर आना हो तो ऐसे करना  झुककर आना दरवाजे से सर लगता है। नुक़्ते से लेकर बिंदी तक याद आती हैं पहला-पहला ख़त लिखने में डर लगता है। बाकी सब है बस शब्दों की ब्यर्थ जुगाली शेर वही है जो सीधे दिल पर लगता है।

दार्शनिक

प्रकृति में जो भी है सब नपा-तुला है *************************** (जनश्रुति) एक थे दार्शनिक, वो कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि खेत में बड़े बड़े कद्दू लगे हुए थे।  थोड़ा आगे चलकर पीपल का एक पेड़ मिला। दार्शनिक जी अब तक पूरे तरीके से थक चुके थे। इसलिए आराम करने के उद्देश्य से वह वहीं पीपल के नीचे बैठ गये।  दार्शनिक का दिमाग था कुछ न कुछ तो सोचना ही था। उन्होंने पीपल के पेड़ पर लगे उसके फल देखे और सोचने लगे...  एक वह कद्दू का पौधा जो अपने दम पर खुद खड़ा नहीं हो सकता और जमीन पर ही फैलता है, या किसी अन्य चीज के सहारा मिल जाय तो ही खड़ा हो पाता है। उसमें उतने बड़े बड़े फल... और एक ए पीपल का पेड़ जो हजारों कद्दुओं का बोझ एक साथ उठा सकता है? इसमें इतने छोटे छोटे... दार्शनिक ने फ़टाफ़ट अपना निष्कर्ष निकाल लिया-- "बनाने वाले से जरूर कोई ग़लती कर दी." यही सोचते सोचते उन्हें नींद आ गई और वे पीपल के नीचे ही गमछा बिछाकर सो गये। थोड़ी देर में हवा का एक झोंका आया जिससे पेड़ की डालियां हिलीं तो उसपर बैठे कौवे उड़ गये।  कौवों के उड़ने से तीन चार पीपल के फल टूटकर सीधे दार्शनिक की नाक पर गिरे और उनकी

प्रोग्रेसिव लोग

'उस्ताद सुना है कोई कॉफी होती है जो अमेज़न के जंगलों में घूमने वाले हाथियों के लीद से बनती है?' 'होगी यार ...मोय तो नाय पतो?' '... और कोई मंहगी क्रीम भी होती है जो घोंघे के लार से बनती है?' 'मोय नाय मालूम यार...?' '... और उस्ताद सुना है कि कई सुंदर होने के लिए लगाई जाने वाली क्रीमों में भी कई गंदे समझे जाने वाले जानवरों की चर्बी पड़ती है?' 'मुझे ये सब कुछ नहीं पता यार जमूरे... लेकिन तुम आज ये सब पूछ ही क्यों रहे हो?' 'मैं पूछ बस इसलिए रहा हूँ उस्ताद कि सभी प्रोग्रेसिव विचारधारा वाले गो मूत्र पीने वालों को तो पिछड़ा बता रहे हैं। लेकिन हाथी का गू खाने वालों को कुछ नहीं बोल रहे?' 'तू फालतू की चिंता मत कर यार जमूरे! गो मूत्र पर भी जिस दिन किसी विदेशी कंपनी का ब्रांड चस्पा हो जाएगा ये भी पवित्र हो जाएगा।'