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मध्यम वर्ग और सरकारी खैरात

मध्यम वर्ग और सरकारी खैरात ************************ "यार जमूरे! बच्चे को कुत्ते ने काट लिया है, टीका कहाँ लगता है जरा बताओ तो..?" "ये तो अपनी पी एच सी में ही लग जायेगा उस्ताद! बस सोमवार या बीरवार को सुबह आठ बजे पहुँच जाना वहां... वहां तो कोई फीस भी नहीं लगती बस एक रुपये की पर्ची कटानी होती है...  नहीं तो हस्पताल के सामने ही जो मिश्रा जी का मेडिकल स्टोर है वहाँ सौ रुपये देकर भी लगवा सकते हैं। वहाँ कभी भी जाओ लग जाता है।" "लेकिन ये वैक्सीन तो सरकारी ही आती है न, फिर मिश्रा जी को कहाँ से मिल जाती है?" "हस्पताल वाले ही तो कमीशन पर देते हैं उस्ताद और कहीं आसमान से थोड़ी टपकती है।" "जब सामने ही फ्री में लगती है तो फिर मिश्रा जी के यहाँ लगवाने कौन जाता होगा यार?" "वो तो नहीं मालुम उस्ताद!" कुछ दिन बाद फिर से जमूरे की मुलाकात मदारी से हुई, तो उसने पूछ लिया- "कुत्ते वाला टीका बच्चे को लगवा लिया था क्या उस्ताद?" "हां भाई लगवा लिया था।" "कहाँ से लगवाया?" "वही अपने मिश्रा जी के यहाँ से..." "क्यो

ग़ज़ल

आईना देख देख के शरमाये हुए दिन तेरे बगैर होते हैं मुरझाये हुए दिन। कैसे तेरे बगैर हैं ये बात न पूछो  जख्मों से भरी रात है विष खाये हुए दिन। जब से गए हो खूंटी से लटके ही हुए हैं बिस्तर की तरह बांध के लटकाये हुए दिन जब जब भी तेरी याद में सोती नहीं रातें जमहाइयों में कटते हैं अलसाये हुए दिन। हर ओर घूरने में हैं मनहूस निगाहें सहमें हुए ढल जाते हैं बल खाये हुए दिन। जाना है कहाँ ये भी बताते नहीं हैं कुछ  मंजिल के लिए दौड़ में भरमाये हुए दिन। कर लो हसीन कितनी भी अब वस्ल की रातें भूले से भी भूलेंगे न तरसाये हुये दिन।

हम लड़के

हम लड़के ******** हम भी पैदा ही हुए हैं कोई धरती फोड़कर नहीं निकले या आसमान से नहीं गिरे फिर तुम्हारे अरमान और मेरे प्रान एक ही तराजू में आजू बाजू क्यों रखे हैं? जब पहली बार लड़खड़ाते हुए धरती पर रखा था पाँव और गिर पड़ा था धम्म से फिर भर ली थी सांसें बुक्का फाड़कर रोने के लिए और माँ ने कहा था 'लड़के रोते नहीं हैं।' वो पहली सीख थी आंसुओं को पी लेने की हम रोते नहीं  फिर भी दर्द तो होता ही है न? वक्त के फफोलों के साथ  नदी पहाड़ जंगल चीरकर तुमसे मिलने के लिए मेरा मीलों का सफ़र तुम्हारे इंतज़ार के आगे बौना हो गया। मेरा रोटियां कमाने का जद्दोजहद तुम्हारे रोटियां बनाने से हार गया। अपना पूरा सामर्थ्य लगाकर और अपने सारे सपने भुलाकर भी तुम्हारे सपनों का न पूरा हो पाना  मुझपर एक कलंक सा लगता रहा तुमने मेरा घर अपनाया मैंने तुम्हारे सपने अपनाए पर इबारतें तुम पर लिखी गईं और मुझपर लानतें तुमने अपनी स्वतंत्रता की आड़ में ये मत खाओ वो मत पीओ ये मत पहनो वहाँ मत जाओ समय पर घर आओ उफ कितनी पाबंदियां डाल दी मुझपर बेटियां बाग की तितलियां हैं इन्हें खूब पोसिये पर लड़के भी तो भौंरे हैं इन्हें भी मत कोसिये  मेरी कम

जमूरा

"उस्ताद ...!  अच्छे दिनों के बारे में तुम्हारी क्या राय है?" "अमा यार जमूरे! अगर अपनी हर शाम रंगीन और हर रात हसीन हो ही रही है तो फिर अच्छे दिनों की ऐसी तैसी मारना है क्या?" "तभी तो मैं कहता हूँ उस्ताद! कि इस देश को तुम्हारे जैसे नागरिकों की नहीं किम जॉन उन जैसे तानाशाह की जरूरत है।'' #चित्रगुप्त