ग़ज़ल

बिन तेरे यूं मंजिल और सफ़र लगता है।

जैसे माँ के बिन बच्चे को घर लगता है।


शोहरत पाकर उड़ने वालों मत भूलो ये

जब मरना हो तब चींटी को पर लगता है।


दिल के अंदर आना हो तो ऐसे करना 

झुककर आना दरवाजे से सर लगता है।


नुक़्ते से लेकर बिंदी तक याद आती हैं

पहला-पहला ख़त लिखने में डर लगता है।


बाकी सब है बस शब्दों की ब्यर्थ जुगाली

शेर वही है जो सीधे दिल पर लगता है।

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