दोहे
दोहे
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जिस पुर्जे के साथ भी, सरकारी है भाय
कितना कर्मठ हो कोई नाकारा हो जाय।
बारी बारी देखिए, चित्रगुप्त को रोज
लेकिन असली रूप को कोई सके न खोज।
चुनना था तब चुन लिया, कंकर पत्थर खार
टाट लिया फिर ढूढिये मलमल की सरकार।
देखा मजहब जाति को करने में मतदान
अब दुसवारी देखकर क्यों फटती है जान?
बातों में हर बात की करो बाल की खाल
ऊपर से उम्मीद भी सुधरेगा ये हाल।
हर झगड़े के मूल में, है बस इतना जान
हर मुद्दे पर ढूढ़ते रहे लाभ नुकसान
कर्म शून्य जो हाँकते, आसमान की बात
मानेंगे हर बात पर, खाकर घूसा लात।
खेती करके बाँस की, गुड़ की है दरकार
जैसी नीयत आपकी, वैसी है सरकार
बिन मतलब कै दोस्ती, बिन पैसा के प्यार?
वतनै मुश्किल है हियाँ, जस गादी कै बार
#चित्रगुप्त
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