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Showing posts from September, 2021

विकास यात्रा

विकास यात्रा *********** भाइयों और भेनों, विकास जो कि 2014 में ही अपने यहाँ आने के लिए निकला था। वह गाड़ी छूट जाने के कारण अभी तक नहीं पहुँचा है। मैं कहता हूँ कि अगर उसे गाड़ी मिल भी जाती तब भी उसने कौन सा समय पर पहुंचना था? देश के अलग -अलग प्रदेशों से निकलने वाली राजधानी गाड़ियां ही जब अपने नियत समय पर नहीं पहुंचतीं हैं तो भला विकास क्या खाक समय पर पहुंचता? हाँ हवाई जहाज से आ जाता तो अलग बात है। लेकिन उसमें भी तो रुट डायवर्ट होने की पूरी संभावना बनी रहती है। कभी-कभी टायर भी फिसल जाता है, तो कभी अपने आप ही टिकट कैंसिल भी हो जाता है। लेकिन फिर भी मुझे पूरा भरोसा है कि विकास ने हवाई जहाज का टिकट नहीं ही कटाया होगा। क्योंकि सरकारी नियमावली के हिसाब से उसे साधारण यात्री किराया ही लागू है। इसलिए क्लेम होने की संभावना नगण्य होने की वजह से आखिर विकास बाबू ने अपनी जेब पर फालतू का बोझ नहीं डाला होगा ऐसा मुझे पूरा भरोसा है। यहाँ गाड़ियों की इस देरी का सारा दोष मैं उन अंग्रेजों को देना चाहूंगा। जो रेलवे को भारत लेकर आये। न वे गाड़ियों को भारत लाते न ये लेट होतीं। कितना अच्छा होता अगर गाड़ियां ही न होती

पिता जी के जूते

पिता जी के जूते ************* दादा जी को तो मैंने नहीं देखा लेकिन पिता जी के मुँह से उनके जूतों के बारे में बहुत बार सुना था। वे कहते थे, 'तुम्हारे दादा जी अपने जूतों के लिए बिलायत से चमड़ा मंगवाते थे, और फिर उसे बनाने के लिए मैसूर भिजवाते थे। मैसूर से जब वो बनकर आ जाता था तो उसमें रंग भरने के लिए वो आगरा जाता था। इतनी जगह घूम लेने के बाद  वो जूता उनके पैरों में जाता था।  हर गरीब  के पास उसके पुरखों के रईसी वाले किस्से होते हैं। इस बात की जीती जागती मिसाल मेरे पिता जी भी थे। हालांकि मैंने उन्हें जब भी देखा नंगे पैर ही देखा लेकिन जब भी उनसे कोई इस बाबत पूछता वह दादा जी के जूतों की चर्चा छेड़ देते थे। मुझे याद है पिता जी के पास एकजोड़ी जूता ही था जिसमें कितनी जगह से सिलाई करवा रखी थी इसका ठीक ठीक पता करना बहुत मुश्किल था। हाँ लेकिन कई बार मरम्मत के लिए देते समय मोची की बात का ध्यान बहुत अच्छे से है। वह कहता था, "अरे अब इसे फेंक दो पंडित जी सिलाई की जगह भी नहीं बची है। और तला तो पूरा ही खत्म हो चुका है।"  उसकी इस बात पर पिता जी खिसियानी सी हंसी हंसते हुए उकड़ू बैठ जाते और मोची क

समानता

समानता ******* "क्या ख़ाक समानता है उस्ताद? उधर देखो... कलेक्टर साहब के आवास के बाहर जो सिपाही संतरी ड्यूटी में लगे हैं। बेचारे दिन रात ड्यूटी बजाते हैं। फिर भी आते जाते हुए कलेक्टर साहब की डांट खाते हैं। वहीं दूसरी तरफ कलेक्टर साहब... रात भर मौज से सोते हैं। सुबह भी आराम से उठते हैं। सरकारी आवास, सरकारी नौकर ...ये सब तो है ही तनख्वाह भी इन संतरियों का चार से पांच गुना ज्यादा उठाते हैं।" पूरे तैस में आकर जमूरे ने अपना सवाल दागा। जमूरे के सवाल पर मदारी ने अपनी मूछों को एक दो बार घुमाया और डमरू के डुडुम-डुडुम के साथ बोलना शुरू किया। "दुनिया गोल है जमूरे... आज के कलेक्टर साहब पढ़ाई के दौरान जब रात-रात भर जागकर पढ़ते रहे होंगे? उस समय ये संतरी ड्यूटी में लगे सिपाही टांग फैलाकर आराम से सोते रहे होंगे। भरोसा नहीं है तो कभी चलो मुखर्जीनगर देश के कोने-कोने से आये पढाकुओं जमघट वहीं पर है।" इतना कहकर मदारी ने फिर से डमरू बजाया और आगे बोलना शुरू किया। "जो जहाँ है, जैसा है, जो भी है? वो उसका अपना चयन है। अपनी मेहनत है। उसके माँ बाप के कर्म है।(भाग्य वाला नहीं)" "तो

आस्तिक/नास्तिक

आस्तिक/नास्तिक ************** नास्तिक हूँ मैं! लेकिन जब भी गुजरता हूँ किसी देवस्थान से किसी मंदिर से, मस्जिद से, मजार से... तो 'मैं' 'तुम' हो जाता हूँ। और उठा देता हूँ हाथ दुनिया के सलामती की दुआ के लिए क्योंकि तुम्हारा होना इन आस्थाओं के होने या न होने से कहीं ज्यादा जरूरी है। और मैं जानता हूँ कि तुम आस्तिक हो! #चित्रगुप्त

फटी चड्ढी और गर्ल फ्रेंड

"जमूरे! कल गर्लफ्रेंड को खाना खिलाने ले गए थे। उसके बाद काफी गुमशुम से हो आख़िर क्या हो गया ऐसा?" "ले तो गया था उस्ताद पिज्जा ऑर्डर भी कर दिया था। लेकिन वो वॉशरूम जाने के लिए उठी तो जीन्स के नीचे से मेरी फटी चड्ढी दिख गई। वो फटाक से मुड़ी और मेरा हाथ पकड़कर बाहर आ गई।" मैंने पूछा कि क्या हुआ? तो वो बोली शेखी बघारने के लिए मुझे पिज्जा हट का खाना खिला सकते हो। लेकिन अपनी चड्ढी नहीं ले सकते। पहले चलो तुम चड्ढी खरीदो पिज्जा हम बाद में खा लेंगे। "लेकिन ये तो अच्छी बात है न जमूरे...?" "बात तो बहुत अच्छी थी लेकिन  ये बात बीवी को पता न चलती तब तो...?"