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Showing posts from August, 2020

अकर्मण्यता

"हम कोरोना जाँच के लिए आये हैं भैया किसी को सर्दी खांसी जुकाम तो नहीं है न आपके घर में?" आगंतुक चार महिलाओं में से एक ने मुझसे सवाल किया।  "आप लोग अस्पताल से आई हैं क्या?" मैंने सबसे तेज़ चैनल के न्यूज़ एंकर की तरह सरकार के काम की पड़ताल करने की कोशिश की। "नहीं भैया मैं आंगनबाड़ी वाली हूँ।" "अरे भाई आंगनबाड़ी वालियाँ कब से मेडिकल जांच करने लगीं?" मैंने ये बात साथ बैठे एक अन्य की तरफ इशारे से पूछने की कोशिश की लेकिन वो तो अब तक जा चुका था। बगल वाली सीट खाली हो जाने के दुःख में मैंने सामने वाली से ही प्रश्न किया। "अच्छा ये आपके साथ में  और कौन-कौन है?" "एक ये तो अपने गांव की ही आशा बहू हैं, ये वाली आंगनबाड़ी सहायिका और ये जो तीसरी हैं ये ए एन एम मैडम की तरफ से हैं।" उसने हाथ के इशारे से अपनी बात बता दी। "ए एन एम मैडम की तरफ से हैं का क्या मतलब?" "अस्सी हजार रुपये महीना तनख़्वाह है भैया उनकी वो हमारे जैसे गली गली घूमने क्यों आएंगी? ये तो अपने ही गांव की दाई हैं। इनको तो ऐसे ही गिनती पूरा करने के लिए अपनी जगह पर हमारे साथ

बहडू बगिया

बहडू बगिया ********** वह जमाना और था जब आमों की बड़ी बड़ी बगिया होती थी। जो ब्यक्तिगत होते हुए भी अघोषित तौर पर सार्वजनिक हुआ करती थी। जिसमें आम बीनने खाने या गिरी हुई लकड़ी उठाने पर कोई पाबंदी नहीं होती थी। सरकारी योजनाओं की 'पहले आओ पहले पाओ' वाली स्कीम का शुरुआती ख़याल शायद यहीं से आया हो? मौसम में कभी कोई पेड़ खाली नहीं रहता था जिसके नीचे कोई न कोई शख़्स योगमुद्रा में इधर उधर नजर मारते हुए न दिख जाय।  उन आमों के नाम भी आज जैसे लंगड़ा, सफ़ेदा, दशहरी, मालदा टाइप नहीं होते थे। उनके नाम पेड़ों के आकार, स्थान या स्वाद के हिसाब से तय होते थे। जैसे मिठौवा, खट्टहवा, बैरिहिवा (बेर सा), पिपरहवा(जिसपर पीपल भी लगा हो), बरगदहवा(बरगद वाला) आदि आदि। बहडू ऐसे ही किसी गांव में एक जमींदार के हरवाह थे। जिन्हें पूरा गांव लंबरदार के नाम से जानता था। आजादी के बाद जमींदारी फिलहाल तो चली गई थी पर खेतों को सीलिंग से बचाने के लिए इनके बाप दादों ने बहुत सारी बगिया लगवा दी थी जिसके कारण जमीन आज भी इनके पास बहुत थी।  खेती किसानी करना और सुबह शाम उनके जानवरों को देखना बहडू की नित्य क्रियाओं में शामिल था। लंबरदार

मेरी जिज्ञासा

मेरी जिज्ञासा *********** मैं देखना चाहता हूँ कि महिलाओं पर बच्चों पर  या किसी कमजोर पर जुल्म करने वाले के दिमाग में ऐसा क्या चल रहा होता है कि उसकी संवेदनाओं के सारे तंतु शिथिल हो जाते हैं। मैं जानना चाहता हूँ ये भी कि माया सभ्यता, इंका सभ्यता वाले लोग या फिर वे लोग जिन्होंने बनाये थे मिश्र के पिरामिड कहाँ गए होंगे क्या भर गया होगा उनका 'मन' अपनी ही विकसित चीजों से  और फिर वो डूब गये होंगे अपने ही इच्छाओं के समंदर में मैं जानना चाहता हूँ कि ईराक हमले के बाद  अमेरिका द्वारा हासिल सद्दाम हुसैन वाला सार्वजनिक विनाश के हथियार कहाँ हैं। मुझे पता करना है ये भी कि अगर द्वितीय विश्व युद्ध में जीत जातीं नाजी सेनाएं तो क्या हम यहूदियों पर हुए अत्याचार की कथाओं की जगह अमेरिका द्वारा किसी वर्ग पर किये अत्याचार की कहानियां पढ़ रहे होते।  मैं जानना चाहता हूँ कि अगर हारने वाले को  इतिहास लिखने का मौका मिलता तो वो कैसे लिखते? मुझे पूछना है कुछ वर्तमान तानाशाहों से  जो रूस बेलारूस चीन उत्तर कोरिया या ऐसे ही किसी अन्य देश हो सकते हैं कि जब चुनाव में जितना उन्होंने ही है तो फिर ये चुनाव होते ही क

पुरुष

पुरुष **** मैं कामी  मैं क्रोधी  मैं दंगाई  मैं बलबाई  पुरुष हूँ मैं! वही पुरुष जिसने भर भर कर लिखी कविताएं प्रकृति पर, सौंदर्य पर, बल पर, सौष्ठव पर और ढोते रहे अपने असुंदर होने की चस्पा इबारतें अपनी ही पीठ पर, पेट पर, सिर पर, माथे पर दुनिया की आधी से थोड़ी अधिक आबादी जिनके रामत्व की चर्चा में  सीता को वनवास देने की चर्चा खूब गर्म हुई शम्बूक वध पर भी हैं बड़े बड़े ब्याख्यान। पर सुग्रीव की मित्रता या शिबरी के प्रति अगाध प्रेम  समुद्र और लंका विजय के सामर्थ्य की टीकाएँ छुपा दी गईं कुछ काली इबारतों के नीचे मेरे कृष्ण रूप में सोलह हजार रानियों की चर्चाएं भी गर्म हुईं पर गणिकाओं को अपनी अर्धांगिनी बनाकर राजाश्रय देने का मेरा साहस नहीं दिखा। मेरे न रोने के पीछे मेरा दम्भ देखने वालों ने दीवारों के रोने से घर में पैदा हुई सीलन को ढाप लेने का मेरा कर्तब्यबोध नहीं देखा बॉस की डांट  ब्यवसाय में घाटे की चिंता कपड़े लत्ते, पढ़ाई- लिखाई , दवाई, राशन, बिल, रिचार्ज, भाड़ा  ये सब कम है क्या किसी के मनहूस होने के लिए। इतने के बावजूद भी ट्रेन और बस में उन्हें बिठाकर खुद खड़े हो जाना छोटी सी चीज लाने के लिए घंटो