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Showing posts from January, 2023

गजल

इधर भी गधे हैं उधर भी गधे हैं सभी बस दुलत्ती उठाए खड़े हैं। किसी बात में कोई कम क्या किसी से सभी ज्ञान के बोझ से ही दबे हैं। उधर सांप का डर सताए तो सुन लो इधर जाइएगा तो अजगर पड़े हैं। उन्होंने ही नफरत का विष बीज बोया वही प्रेम की जो पीएचडी पढ़े हैं। नदी ने कहा डर न गैरों से नाविक डुबाएंगे वो ही जो अपने सगे हैं। हुए मीर जाफर व जयचंद लेकिन भगत सिंह आजाद भी तो हुए हैं। नमन अष्ट अंगों से है इस धरा को मृदा में इसी के पले हैं बढ़े हैं।

दो गजलें

(1) जिनके आगे अटक रहा हूं मैं। सिर्फ उनको खटक रहा हूं मैं। एक तेरा पता नहीं मिलता इसलिए ही भटक रहा हूं मैं। शेष सारे विषय में डिसडिंक्शन  इश्क ही में लटक रहा हूं मैं। तेरे हक की दुआएं मिल जाएं हर कहीं सिर पटक रहा हूं मैं। तुझको देखूं या चांद को देखूं  देखता एकटक रहा हूं मैं। दूर तुझसे बुला रही दुनिया और गर्दन झटक रहा हूं मैं। रूप का स्वाद चख रहे कौवे बैठा आंसू गटक रहा हूं मैं। (2) भागो छोड़ो समझाना बेकार है। यदि बंदर के हाथों में तलवार है। लायक जगहों पर काबिज हैं नालायक इतने का ही सारा बंटाधार है। घटना का सच कह दोगे तो मारेगी दुनिया को बस अपना सच स्वीकार है। प्यार भरा है गुस्से से पापा जी का मां के गुस्से में भी थोड़ा प्यार है। बच्चे कबसे बैठे हैं चौखट पर ही इक मां के बिन सारा घर बेजार है। एक झरोखा रह जाता तो अच्छा था आंगन में उठने वाली दीवार है। अंधों की नगरी के काना राजा को मन के लूले लंगड़ों की दरकार है।

गजल

बाहुबल चारों दिशाओं को विजित करता रहा प्रेम केवल मन हमारा ही मुदित करता रहा। तोड़ने वाले हमेशा फूल लेकर चल दिए मैं सभी को कंटको से ही विदित करता रहा। हाथ से वो भी गया था हाथ से ये भी गया जो दुराहे पर खड़ा मन ही भ्रमित करता रहा। मारकर सुकरात मीरा यीशु और मंसूर को राजसत्ता इस तरह से देशहित करता रहा। एक चुटकी छांव की खातिर फिरा वो उम्र भर और खुद ही भूमि को जंगल रहित करता रहा।