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कहानी

नौकरी, बेरोजगारी, आत्मसम्मान और रिश्ते *************************************** वैसे उनका नाम था जिग्नेश पर सब उन्हें झिगने-झिगने कहकर बुलाते थे। क्यों बुलाते थे इसका पता नहीं, पर गांवों में एक रिवाज सदियों से है कि हर व्यक्ति का कहने वाला नाम और जबकि दस्तावेजों में दर्ज नाम और होगा। कई बार तो बैंक से आए किसी पेपर को उसी आदमी के बच्चे 'मैं नहीं जानता हूं' कहकर लौटा देते हैं। कल्प नाथ मिश्र का नाम पूरे गांव में कलपू होगा ये कौन कह सकता है? वहीं गोवर्धन प्रसाद वर्मा गांव के गोबरे होंगे इसका अनुमान तो उसकी होने वाली बीवी को भी नहीं था। शादी के सालों बाद एक दिन उनकी बुआ जब उन्हें गोबरे कहकर संबोधित कर रही थीं तब उसे पता चला कि गोबरे नाम उनके गोबर गणेश का ही है।  ये नाम बिगाड़ने वाली परंपरा केवल अपने ही देश में नहीं है। बल्कि यह तो सर्वव्यापी है। ब्राजील के सर्वकालिक महान फुटबॉलर एडसन अरांतेस डो नेसीमेंटो जो कि काला हीरा के नाम से मशहूर थे उन्हें कोई-कोई ही जानता होगा लेकिन पेले को सब जानते हैं। बचपन में खेलते हुए किसी लड़के ने उन्हें पेले कहकर चिढ़ाया था जिसपर वो खूब चिढ़े थे उसके ब

समीक्षा : फत्ते-पुराण

फत्ते-पुराण : सरल व्यंग्यकार की गहरी चोट ___________________________ चित्रगुप्त जी का व्यंग्य-संग्रह 'फत्ते-पुराण' पढ़े एक सप्ताह से अधिक हो गया था पर जीवन के झंझावात व्यक्ति को सदैव मन का कब करने देते हैं। आज जब कुछ अवसर मिला तब 'फत्ते-पुराण' फिर याद आया। 'फत्ते-पुराण' चित्रगुप्त जी की शायद सातवीं पुस्तक है। वे मूलतः व्यंग्यकार ही हैं। हालांकि उन्होंने 'नैहर' और 'दो रुपया' जैसी अति संवेदनशील कहानियाँ भी लिखी हैं जिन्हें पढ़कर पाठक के सिर्फ आँसू नहीं निकलते,  वह फफककर रो पड़ता है। इस तरह गंभीर भावभूमि पर भी चित्रगुप्त जी की तमाम कहानियाँ, लघुकथाएँ हैं लेकिन जब आप इनके समग्र लेखन पर दृष्टि निक्षेपित करेंगे तब आप भी वही कहेंगे जो मैं कह रहा हूँ। सात पुस्तकों में से चार सिर्फ व्यंग्य पर ही हैं। वे चाहे गद्य लिखें या पद्य उसमें व्यंग्य आ ही जाता है। आलोच्य पुस्तक 'फत्ते-पुराण' छोटे-छोटे व्यंग्य-लेखों का संग्रह है। व्यंग्य में जबसे हास्य आया है,व्यंग्य की धार थोड़ी कुन्द हुई है। व्यंग्य को मनोरंजन का साधन नहीं बनाना चाहिए। अगर आप सधे व्यंग्यका

बचे हुए पृष्ठ

पत्रकारिता के लिए यह सबसे दुःखद समय है। या तो आप वो लिखें और बोलें जो सत्ता में बैठे लोग चाहते हैं या फिर पुलिसिया हथकंडे का शिकार होकर जेल जाने के लिए तैयार रहिए। यह बुराई किसी एक सरकार की नहीं बल्कि वर्तमान समय की है। सत्ता में कौन है इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता सरकारी महकमा अपने आका के ऊपर कोई आक्षेप बर्दाश्त नहीं कर रहा है। मुझे नहीं लगता कि कोई मंत्री कोई विधायक या कोई सांसद किसी पुलिस अधिकारी को बुलाकर कहता होगा कि फलां ने मेरे लिए ऐसा बोला है इसलिए उन्हें फंसा दीजिए। यह पुलिस अधिकारियों की अपनी तत्परता है जो वह ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता का खासम-खास बन जाने की प्रवृत्ति के कारण होता है।  पुस्तक 'बचे हुए पृष्ठ' 51 आलेखों का संग्रह है। जो विभिन्न राजनीतिक परिस्थितियों और अलग-अलग परिवेश में लिखे गए हैं। जिसकी शुरुआत मां पाटेश्वरी के ऊपर लिखे लेख से और अंत 'भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कारगर उपाय अब भी दरकार' से है। ये लेख लंबे अनुभव और समग्र दृष्टि के द्योदक हैं। विषयों की विविधता के साथ पूरी किताब में कहीं भी पक्षधरता या एकतरफा झुकाव देखने को नहीं मिलता है।  पत्रकारिता का मू

कस्तूरी कुंडल बसे

कस्तूरी कुंडल बसे ************** कवि और लेखक अपने मन की बात नहीं कहता वह जन मन की बात कहता है। जिसे आमजन कहना तो चाहता है पर शब्दों या परिस्थितियों के अभाव में नहीं कह पाता लेकिन वही आदमी जब साहित्य की किसी धारा से जुड़ता है और उसे लगता है कि अरे यहां तो मेरे ही मन बात हो रही है, तो फिर वह उसके साथ बंधता चला जाता है। वेदों की ऋचाएं हजारों साल ऐसे ही जिंदा रहीं जब कागज का आविष्कार भी नहीं हुआ था।  आजकल खूब लिखा जा रहा है। साहित्य की हर विधा में लिखने वालों की संख्या मांग से हजारों गुना ज्यादा है। इसलिए ढेरों ढेर लुगदियों के बीच उस चमकते पन्ने को ढूढना काफी मुश्किल हो गया है जहां अपने मन की बात लिखी हो। इसी का दुष्परिणाम यह हुआ कि पाठक लेखक से दूर होता गया। देर से ही सही लेकिन अच्छी कृतियां अपना पाठक ढूंढ ही लेती हैं।  अतुलनीय साहित्य प्रेमी श्री लक्ष्मी नारायण अवस्थी जी मेरे और रामपाल श्रीवास्तव 'अनथक' जी के बीच पहचान का माध्यम बने जब उन्होंने मेरी लघु व्यंग्य उपन्यासिका तमाशाई को अनथक जी के पास पहुंचाया। बलरामपुर जो कि मेरे छात्र जीवन का कर्मभूमि रहा है अनथक जी वहीं के निवासी ह

वीथियों के बीच

"हमें उतार दिया जिंदगी ने बीच सफर हमारे पास यहीं तक का ही किराया था"  ******************************** शेर ऐसा ही होता है वो जब दहाड़ता है तो सारा जंगल मूक कोलाहल से भर जाता है।  आदमजात के जीवन का सोलहवां वसंत आते आते उसके अंदर एक लयात्मकता जन्म लेने ही लगती है। यह वो समय होता है जब जिंदगी का शुरूर चढ़ना शुरू होता है। यह समय जीवन में रंगीन सपने देखने का होता है।  इसी समय उसके अंदर की कोमलता काव्यात्मक होने लगती है। जीवन के इस मोड़ पर शायद ही कोई ऐसा हो जिसने  तुकबंदियां न की हो या कुछ न कुछ काव्यात्मक न लिखा हो। उन्हीं में से कुछ विशिष्ट प्रकार के जीवों को कविताएं पकड़े रह जाती हैं, तो वे आजन्म कुछ न कुछ लिखते रहते हैं। कुछ सोलह के बाद दो चार साल में कविता से अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। कुछ की कविताई बीवी जान के चप्पलों और जूतों की खातिरदारी के बाद छूटती है। कुछ बड़े ढीठ प्रकृति के होते हैं जो जीवन की किसी भी परिस्थिति में लिखना नहीं छोड़ते ये इस प्रकार के जीव होते हैं जो चाहते हैं कि दुनिया उनके कहे के हिसाब से चले। लयात्मक अभिव्यक्ति की अलग अलग विधाएं हैं उन्हीं से एक का नाम

बड़े साहब बड़े कवि

बड़के साहब बड़के कवि ******************* साहब को कुछ दिन पहले तक संगीतकार बनने की खुजली लगी थी। तभी उन्होंने दो चार तंबूरे मंगवा लिए थे। उसे दो चार दिन ठोंका पीटा बजाया फिर चार छः बार हाथ काट लेने के बाद उन्हें ये अकल आ गई कि संगीत उनके वश का नहीं है।  बड़ा साहब होना कोई इतनी छोटी बात तो होती नहीं है कि वो इतनी आसानी से हार मान लें। उन्होंने थोड़ा सा दिमाग लगाया जो कि है भी उनके पास थोड़ा ही तो कविता के जसामत की शामत आ गई। उन्होंने प्रेम कवियों पर मर मिटने वाली आधुनिकाओं के बारे में बारे में सुन रखा था। इस आकर्षण ने पहले भी उनका जीना हराम किया था लेकिन तब इस बीज में अंकुरण नहीं हो पाया था। समय के हवा पानी से धरती फूटी और अंकुर बाहर निकल आया।  कविताओं की करीब दर्जन भर किताबें मंगाकर उसे हफ्ते भर सिरहाने रखकर सोने के बाद उन्हें इस बात का एहसास होने लगा कि वो कवि ही हैं। फिर क्या था उन्होंने कलम पकड़ ली और सादे कागज का गला घोटने पर उतारू हो गए।  "बड़े साहब कविता लिख रहे हैं।" एक चपरासी ने आकर दफ्तर में सूचना दी।  बड़े बाबू जिन्हें मोबाइल पर कुछ भी लिखना नहीं आता था। उन्होंने फौर

ग़ज़ल

दिखने में तो सारा सिस्टम बांका छैल छबीला है। लेकिन आधे पुर्जे गायब बाकी आधा ढीला है। कत्लेआम मचाने दिल्ली आएगा फिर नादिरशाह यदि सत्ता का चाबुक पकड़े बैठा शाह रंगीला है। ये कैसी कद की तुलना है मुझको खाईं में रखकर उन्हे जहां पर खड़ा किया है उसके नीचे टीला है। एक रोज था डसा इश्क ने कुछ रिश्तों के जंगल में उसी रोज से आसमान का तेवर नीला नीला है। तितली ने होंठों से छूकर कर डाला सबको बीमार बागों के सब फूलों का रंग तब से पीला पीला है। कितने आशिक पाल रखे हैं एक अदद दिल की खातिर दिल तेरा दिल ही है या फिर कोई गांव कबीला है। अपने चादर के टुकड़ों से बांटा करता हूं रूमाल अश्कों की बारिश होने पर जिसका बाजू गीला है। चित्रगुप्त