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बंदनवार

बंदनवार ******** घर में उत्सव का माहौल था, मानो सृष्टि स्वयं नववधू के स्वागत में उल्लासमयी हो उठी हो। गाँव के उस छोटे से आंगन में, जहां कभी सूरज की किरणें भी बमुश्किल पहुंचती थी, आज रंग-बिरंगे बंदनवार लटक रहे थे। पथ के दोनों ओर मालती और चंपा के फूलों की मालाएँ सजी थीं, जिनकी सुगंध हवा में तैर रही थी, जैसे प्रकृति भी इस विवाह के गीत में शामिल हो।  विवाह के मंगलमय उत्सव में वातावरण मानो प्रेम और विरह के रंगों से सराबोर था। गीतों की मधुर स्वरलहरी हवा में तैर रही थी, जिसमें बिटिया के अपने पिता के आँगन को छोड़ ससुराल की ओर प्रस्थान करने का करुण राग गूँजता था। महिलाओं के स्वरों में एक अनकही पीड़ा थी, जो हृदय को छू लेने वाली थी, मानो प्रत्येक शब्द में माटी की सोंधी खुशबू और बिछोह की तीखी चुभन समाई हो। एक कन्या, जिसके कोमल हाथों में ढोलक थी, ताल को पकड़ने में संकोच कर रही थी। उसकी अनभ्यस्त उंगलियाँ लय को छूने का प्रयास करतीं, पर भटक जातीं। पास ही, एक प्रौढ़ा नारी, शायद उसकी माँ, अपने घुटनों पर उंगलियों से ताल ठोंककर उसे मार्ग दिखा रही थी। उसकी आँखों में स्नेह था, और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान...

नैहर

नैहर **** “हे भैया पिंटू सुनो, आज तुम्हारे माँ बाऊ जी हस्पताल गए हैं तो चलो मुझे महदेवा घुमा लाओ बहुत दिन हुए नैहर देखे. भैया, भौजी तो बचे नहीं पर भतीज लोग तो हैयै हैं.” दादी ने अपने पोते से मनुहार किया जो चौकी पर बैठा कोई तिकड़म लड़ा रहा था. “हम नहीं जायेंगे दादी मेरा पैर दर्द कर रहा है.” पोते ने अनमने ढंग से उत्तर दिया.  “अरे! पैर दर्द कर रहा है तो लाओ हम दबाए दे रहे हैं पर हे बछौवा तनी घुमाय देव! तुम गेंद के लिए अपनी अम्मा को बोल रहे थे न? हम दिलवाए देंगे और कुछ खा पी भी लेना. पर चलो भैया, जल्दी से तैयार हो जाओ बहुत दिन हुए अपना मुलुक देखे.” गेंद का नाम सुनकर पिंटुआ खुश हो गया. उसने साइकिल निकाली, झाड़ा पोंछा और दादी भी कमीज पहनकर चश्मा लगाई और डंडा लेकर तैयार हो गईं. “अरे पिंटुआ तुम्हारा गेंद कितने का मिलेगा रे?” “पचास रुपये.” दादी ने अपना पूरा धरी-धरोहर ढूंढा कुल जमा चौवन रुपये. सारी नोटों का उन्होंने बड़े सलीके से तह बनाकर अपनी कमीज की जेब के हवाले कर लिया और सिक्कों को इकट्ठा करने लगीं. “पर इसमें तो ये वाले एक के सिक्के अब नहीं चलते दादी.” पिंटुआ ने उनमें से पुराने सिक्कों को...

ग़ज़ल

हर एक बात का मतलब दिखाई देने लगा, मरा जो बाप उसे अब दिखाई देने लगा। कहीं पे दाल कहीं नाच रही थी रोटी, खुली निगाह तो करतब दिखाई देने लगा। चला गया था बहुत पास तो दिखता कैसे, जरा सा दूर हटा तब दिखाई देने लगा। कहां चराग कहां आग है कहां है धुआं जला के हाथ मुझे सब दिखाई देने लगा लगा के आग को कहते हो तमाशा क्या है, बताओ यार तुम्हें कब दिखाई देने लगा। मरा वो भूख से इसकी किसी को फिक्र नहीं, सभी को लाश का मजहब दिखाई देने लगा। रहा मिज़ाज से अंधा तो सभी बैठे थे, बचा कोई भी नहीं जब दिखाई देने लगा। गिरा तो छोड़ दिया साथ मेरा अपनो ने, उसी के बाद मुझे रब दिखाई देने लगा। #चित्रगुप्त

सोशल मीडिया के अनसोशल लोग

सोशल मीडिया के अनसोशल लोग ******************************* (१) फेसबुक पर एक बड़े अधिकारी हैं और बढ़िया लेखक भी हैं। हालांकि बड़ा अधिकारी बढ़िया लेखक न होकर भी बड़ा लेखक ही माना जाता है। क्योंकि उसकी मेज पर जिसके काम की फाइलें पड़ी धूल फांक रही होती हैं वो तो उसकी पोस्ट से लेकर उसके द्वारा किए गए कमेंट और उसकी रिप्लाई तक में लाइक मार आता है। वहीं उससे जिसका काम नहीं भी होता है वह भी इस उम्मीद में उसकी जय-जय करते नहीं थकता कि क्या पता कब कहां जरूरत पड़ जाए।  वो अधिकारी संयोग से मेरे फेसबुक मित्र भी हैं। उनकी प्रत्येक पोस्ट पर हजार के आसपास लाइक कमेंट आते हैं। उनके लिखे का प्रचार प्रसार ठीक-ठाक है। कुछ साल पहले मैने उनकी किताब पर समीक्षा लिखी जो एक बड़ी पत्रिका में छपी भी। समीक्षा उनके किताब की थी शायद इसीलिए छपी भी वरना मुझे नहीं लगता कि उस पत्रिका के संपादक ऐसे मेरी लिखी समीक्षा छापते।  उन्होंने मुझे समीक्षा छपने की सूचना भी दी और उसके फोटो के साथ मुझे टैग करके फेसबुक पर पोस्ट डाला जिसका नोटिफिकेशन भी मुझे मिला लेकिन जब मैंने वो नोटिफिकेशन खोला तब तक उन्होंने मुझे टैग से रिमूव क...

साहब की डायरी

साहब की डायरी ************** मनोहर को वैसे तो कुछ आता जाता नहीं था लेकिन वह बड़े बड़ों के घर/दफ्तर आता जाता बहुत था, इसलिए उसकी पदोन्नति में कहीं कोई बाधा नहीं आई। साहब को जहां एक की जरूरत थी उसने वहां चार हाजिर किया उसका फायदा यह हुआ कि इसकी फाइल कहीं रुकी नहीं। बाकियों की फाइलें जहां घड़ी के पेंडुलम की तरह बस एक ही खूंटे से बंधी हुई आलमारी से मेज और मेज से आलमारी के बीच हिलती रहीं वहीं मनोहर की फाइल शोएब अख्तर के गेंद की तरह जैसे ही साहब के पास पहुंची तो उन्होंने रूम बनाकर फाइल को फुलटोस पर लिया और सीधे हाईकमान के हाथों में पहुंचा दिया। साहब मेहरबान तो चपरासी पहलवान...  मनोहर ने भूसी को भी दाल कहकर चलाया तो वह चल गई। बाकी की दाल जल गई और इनकी गल गई। इन्होंने राई को पहाड़ कहा तो वह अकाट्य सत्य हो गया। इन्होंने बेहया के फूल को भी गुलाब कहा तो फिर गुलाब जल की जगह बेहया जल बनाया जाने लगा। इन्होंने ऊंटनी के दूध को गाय का कहकर चलाया तो उसी का पंचामृत बनाया जाने लगा।  मनोहर को वैसे तो घुईयां छीलने की भी तमीज नहीं थी लेकिन कटहल मिल गया था काटने के लिए। अब क्या काटें और क्या समेटें.....

कच्चा आम

कच्चा आम ********* गावों में अब कुछ ही कुएं के ढांचे बचे हैं जो संभवतः आने वाले कुछ वर्षों में समाप्त हो जायेंगे। अभी गांव-गांव पानी की बड़ी-बड़ी टंकियां बन रही हैं। जो आने वाले वर्षों में नलों को समाप्त कर देंगी। फिर वह भी इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएंगे। कुछ वर्षों बाद पानी की टंकियों का भी कोई न कोई विकल्प आ ही जाएगा।  जब लोग कुएं का पानी पीते थे तब उसमें मेढ़क भी होते थे। वो अगर नहीं होते थे तो उन्हें ऊपर से डाल दिया जाता था जिससे वह छोटे-छोटे कीड़ों को खाकर पानी साफ रखें। कई बार ये मेढ़क बाल्टी के साथ ऊपर भी आ जाते थे। जो दिखने पर निकाल दिए जाते थे।  बुधिया ने ससुर के लिए खाना परोसा और भीतर जाकर बैठ गई। घर में घुप अंधेरा था लेकिन लालटेन जलाने का मतलब था कीट पतंगों को आमंत्रित करना। ससुर सुखराम खाना खाना शुरू करते ही कहने लगे- "वाह! जी वाह! आज तो खाने में कुछ अलग ही मजा आ रहा है। जिओ बहुरिया क्या खाना बनाया है तूने और दाल में पड़ा आम आय! हाय! मजा ही आ गया। समधिन ने ढूढ़कर भेजा होगा मेरे लिए..." सुखराम खा कम रहे थे और उसका गुणगान ज्यादा कर रहे थे। यह गुणगान उनकी बीवी सुखिय...

किंग नहीं किंग मेकर थे : श्री गुलाब चंद्र शुक्ल

किंग नहीं किंग मेकर थे: श्री गुलाब चंद्र शुक्ल ***************************************** श्री गुलाब चंद्र शुक्ल जी विनोदी स्वभाव के थे। हर बात में मजाक करना और आसपास वालों को हंसी में सराबोर रखना उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा था। गूढ़ से गूढ़ विषय को भी वह इतनी सरलता से हास्य में पिरोकर कह देते थे कि सामने वाला लाजवाब हो जाता था। क्षेत्र में भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच कुर्ता पायजामा सदरी और काली टोपी उनकी पहचान हुआ करती थी। वही काली टोपी जो एक स्वयं सेवक की पहचान हुआ करती है वह हमेशा बड़ी शान से उसे पहना करते थे। इकहरे बदन की कर्मठ काया से वह जहां भी पहुंचते पूरा माहौल खुशनुमा हो जाता था। वह भाषण में भी कुछ न कुछ ऐसा जरूर बोल देते थे कि सारे श्रोता लहालोट हो जाते थे। रास्ता चलते हुए भी उनसे बात करने वाला बिना मुस्कराए नहीं रह पाता था। वह बात ही ऐसी करते थे कि रोता हुआ आदमी भी हंसते हुए जाए। हाजिर जवाबी उनके रोम-रोम में भरा हुआ था। उनके सामने कितनी भी सावधानी से बात किया जाय वो उसमें से भी कुछ न कुछ ऐसा जरूर निकाल लेते थे कि उसका मजाक बनाया जा सके। वह लाजवाब थे। उनका स्वभाव ऐसा था कि उनस...