बंदनवार
बंदनवार ******** घर में उत्सव का माहौल था, मानो सृष्टि स्वयं नववधू के स्वागत में उल्लासमयी हो उठी हो। गाँव के उस छोटे से आंगन में, जहां कभी सूरज की किरणें भी बमुश्किल पहुंचती थी, आज रंग-बिरंगे बंदनवार लटक रहे थे। पथ के दोनों ओर मालती और चंपा के फूलों की मालाएँ सजी थीं, जिनकी सुगंध हवा में तैर रही थी, जैसे प्रकृति भी इस विवाह के गीत में शामिल हो। विवाह के मंगलमय उत्सव में वातावरण मानो प्रेम और विरह के रंगों से सराबोर था। गीतों की मधुर स्वरलहरी हवा में तैर रही थी, जिसमें बिटिया के अपने पिता के आँगन को छोड़ ससुराल की ओर प्रस्थान करने का करुण राग गूँजता था। महिलाओं के स्वरों में एक अनकही पीड़ा थी, जो हृदय को छू लेने वाली थी, मानो प्रत्येक शब्द में माटी की सोंधी खुशबू और बिछोह की तीखी चुभन समाई हो। एक कन्या, जिसके कोमल हाथों में ढोलक थी, ताल को पकड़ने में संकोच कर रही थी। उसकी अनभ्यस्त उंगलियाँ लय को छूने का प्रयास करतीं, पर भटक जातीं। पास ही, एक प्रौढ़ा नारी, शायद उसकी माँ, अपने घुटनों पर उंगलियों से ताल ठोंककर उसे मार्ग दिखा रही थी। उसकी आँखों में स्नेह था, और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान...