नैहर
नैहर
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“हे भैया पिंटू सुनो, आज तुम्हारे माँ बाऊ जी हस्पताल गए हैं तो चलो मुझे महदेवा घुमा लाओ बहुत दिन हुए नैहर देखे. भैया, भौजी तो बचे नहीं पर भतीज लोग तो हैयै हैं.”
दादी ने अपने पोते से मनुहार किया जो चौकी पर बैठा कोई तिकड़म लड़ा रहा था.
“हम नहीं जायेंगे दादी मेरा पैर दर्द कर रहा है.” पोते ने अनमने ढंग से उत्तर दिया.
“अरे! पैर दर्द कर रहा है तो लाओ हम दबाए दे रहे हैं पर हे बछौवा तनी घुमाय देव! तुम गेंद के लिए अपनी अम्मा को बोल रहे थे न? हम दिलवाए देंगे और कुछ खा पी भी लेना. पर चलो भैया, जल्दी से तैयार हो जाओ बहुत दिन हुए अपना मुलुक देखे.”
गेंद का नाम सुनकर पिंटुआ खुश हो गया. उसने साइकिल निकाली, झाड़ा पोंछा और दादी भी कमीज पहनकर चश्मा लगाई और डंडा लेकर तैयार हो गईं.
“अरे पिंटुआ तुम्हारा गेंद कितने का मिलेगा रे?”
“पचास रुपये.”
दादी ने अपना पूरा धरी-धरोहर ढूंढा कुल जमा चौवन रुपये. सारी नोटों का उन्होंने बड़े सलीके से तह बनाकर अपनी कमीज की जेब के हवाले कर लिया और सिक्कों को इकट्ठा करने लगीं.
“पर इसमें तो ये वाले एक के सिक्के अब नहीं चलते दादी.” पिंटुआ ने उनमें से पुराने सिक्कों को देखकर कहा.
“का बोले नहीं चलते आंय, हाय! भैया! अब का होगा इनका?”
“कुछ नहीं दादी ये बस छः ही रुपये हैं इनको फेंक दो”
“अरे! फेंकेंगे काहे? इनको इसी डिब्बे में बंद करके रख देंगे, नहीं डिब्बा खाली हुआ तो लक्ष्मी महारानी नाराज हो जाएंगी”
“वो तो ठीक है दादी पर इतने में तो मेरी गेंद भी नहीं मिलेगी, और तुम कह रही थीं कि कुछ खिलाएंगे भी?”
“थोड़ा दाम(अनाज) बांध लेंगे, तुम चिंता काहे करते हो हम हैं न?”
दादी का उत्साह आसमान पर था. आज उन्हें कोई समस्या समस्या नहीं लग रही थी. उनकी चाल देखकर लगता था जैसे वह जमीन पर नहीं आसमान पर चल रही हों. वह चल कम रही थीं मून वॉक ज्यादा कर रही थीं.
दाम बांधा गया दोनों दादी पोते साइकिल चढ़े और गाड़ी चल पड़ी महदेवा की ओर … रास्ते में दाम बेंचा गया बच्चों की गिनती के हिसाब से पार्ले जी का दो-दो रुपये वाला पैकेट खरीदा गया.
दादी के अपने सभी भाई-भतीजों के घर के सभी बच्चों के नाम उनकी उम्र के साथ याद थे. उनकी किस लड़की को चिमटी किसको हेयर बैंड किसको गुड़िया और सब लड़कों में किसे कौन सी मिठाई और क्या पहनावा पसंद है सब याद था.
“वो मुन्नी है न वह मेरे पहुंचते ही मेरा पैर पकड़ लेगी और जब तक उसे टॉफी न मिली वह छोड़ेगी नहीं. और वो बच्चन का बड़ा लड़का इतना बड़ा हो गया है कि शादी करने लायक है लेकिन मुझे देखते ही कहता है बुआ कुछ खिलाओ…” दादी पीछे कैरियर पर बैठी बोले जा रही थीं और पिंटुआ पैडल भांजे जा रहा था.
बहत्तर साल की बूढ़ी दादी पर महदेवा पहुंचते ही जैसे जवानी आ गई हो, वो ऐसे उछलकर साइकिल से उतरीं कि पिंटू भी सकते में आ गया. दरवाजे में घुसते ही भाई की बहू से अकावर करने के लिए उन्होंने हाथ बढ़ाया तो सामने से उसका बना हुआ अजीब सा मुंह भी उन्हें रोक न पाया. वह जितना उसे चिपका रही थीं वो छूटने की कोशिश कर रही थी.
फिर उसके बाद तो वह किस-किस को मिलीं किसको भेंटी कोई गिनती नहीं. वह कभी दौड़कर बाहर आतीं कभी भीतर जातीं पर वहां उनकी इज्जत का अंदाजा इसी बात से लगाइए कि पिंटू के लिए पानी लेकर भी वो खुद ही आईं और उसके पास नीचे बैठ गईं जहां वह पलंग पर बैठा था.
“तुम्हें पता है चिंटू ये वाला पलंग मेरे बाऊ जी बनवाया था. अम्मा जब तक थीं वह बचे हुए तेल को इसके पायों में लगाया करती थीं. इसीलिए देखो इसमें अभी तक घुन नहीं लगा है.”
दादी बोले जा रही थीं और पिंटू पलंग पर बैठा बस सुन रहा था. घर वाले आ रहे थे जा रहे थे. उनमें से कोई-कोई था जो उन्हें पहचान रहा था. कोई आता उनका पैर छूकर चला जाता उसे वह बड़ी देर तक आशीर्वाद देती रहती थीं. वह बार-बार अपना चश्मा निकालकर उसे आंचल से साफ करतीं फिर आंखों पर लगातीं. कभी वह चश्मे के बीच से उंगली में आंचल को फंसाकर आंखों को साफ करतीं.
पुराना घर भी नए वाले पक्के मकान के पीछे ही था. दादी वहां भी गईं. खंडहर पड़े घर में भी दादी को जैसे निधि मिल रही हो. घर में कोई न रहने के कारण घास की लताएं नीचे तक लटक रहीं थीं. उन्होंने उसे साफ किया. घर के अंदर घुसीं वहां की एक-एक दीवार को छुआ. फिर घर के पीछे गईं और कटे हुए आम के पेड़ की जड़ को पकड़कर बैठ गईं, और काफी देर तक वहीं बैठी रहीं. पिंटुआ भी उठकर अब वहीं आ गया था.
“दादी घर नहीं चलोगी क्या?”
“चलूंगी क्यों नहीं तुम्हारी अम्मा कहीं हमसे पहले आ गईं तो वह हमारा जीना हराम कर देंगी.”
“तो चलो न?”
“चल रही हूं.” कहते हुए वह उठीं और थोड़ी दूर लगे पुराने नीम के पेड़ को पकड़कर खड़ी हो गईं.
“यह पेड़ मैने ही लगाया था.” उन्होंने इतना कहा और आंचल को मुंह में भर लिया.
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