बंदनवार
बंदनवार
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घर में उत्सव का माहौल था, मानो सृष्टि स्वयं नववधू के स्वागत में उल्लासमयी हो उठी हो। गाँव के उस छोटे से आंगन में, जहां कभी सूरज की किरणें भी बमुश्किल पहुंचती थी, आज रंग-बिरंगे बंदनवार लटक रहे थे। पथ के दोनों ओर मालती और चंपा के फूलों की मालाएँ सजी थीं, जिनकी सुगंध हवा में तैर रही थी, जैसे प्रकृति भी इस विवाह के गीत में शामिल हो।
विवाह के मंगलमय उत्सव में वातावरण मानो प्रेम और विरह के रंगों से सराबोर था। गीतों की मधुर स्वरलहरी हवा में तैर रही थी, जिसमें बिटिया के अपने पिता के आँगन को छोड़ ससुराल की ओर प्रस्थान करने का करुण राग गूँजता था। महिलाओं के स्वरों में एक अनकही पीड़ा थी, जो हृदय को छू लेने वाली थी, मानो प्रत्येक शब्द में माटी की सोंधी खुशबू और बिछोह की तीखी चुभन समाई हो।
एक कन्या, जिसके कोमल हाथों में ढोलक थी, ताल को पकड़ने में संकोच कर रही थी। उसकी अनभ्यस्त उंगलियाँ लय को छूने का प्रयास करतीं, पर भटक जातीं। पास ही, एक प्रौढ़ा नारी, शायद उसकी माँ, अपने घुटनों पर उंगलियों से ताल ठोंककर उसे मार्ग दिखा रही थी। उसकी आँखों में स्नेह था, और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान, जो अनुभव और धैर्य की कहानी कह रही थी। मानो वह कह रही हो, "बेटी, जीवन की लय भी ऐसे ही सीखी जाती है—धीरे-धीरे, प्रेम और संयम के साथ।"
उधर, अर्जुन की पत्नी, अपने शिशु को गोद में लिए, उत्सव की भागदौड़ में व्यस्त थी। उसकी बनारसी साड़ी, जो सोने-सी चमक रही थी, और हाथों में रची मेंहदी की गहरी लालिमा, मानो सौंदर्य और कर्तव्य का संगम रच रही थी। गहनों की झंकार और साड़ी की सरसराहट के बीच वह एक चंचल नदी-सी लग रही थी, जो अपने किनारों को छूते हुए भी अपनी धारा में प्रवाहित थी। उसका चेहरा, थकान के बावजूद, एक अनिंद्य सौंदर्य से दमक रहा था, जैसे चाँदनी रात में कमल का खिलना।चारों ओर विवाह का उल्लास था, पर उसमें कहीं एक गहरा सत्य छिपा था—प्रेम और विरह का, बंधन और मुक्ति का। मानो यह उत्सव केवल दो हृदयों का मिलन न हो, अपितु जीवन की उस अनंत यात्रा का प्रतीक हो, जहाँ हर कदम पर सुख और दुख एक साथ नृत्य करते हैं।
घर के बाहर एक तंबू खड़ा था, सादा मगर मेहमानों के स्वागत के लिए तैयार। जनवासे में दूसरा तंबू, कई छोटे-छोटे तंबुओं को जोड़कर बनाया गया, विशाल और भव्य था। उसमें हजारों लोग बैठ सकते थे, और वहां की हलचल में दो हृदयों के मिलन की एक अनकही आशा थी—जैसे कोई अपूर्ण गीत अधरों पर ठहरा हो, और गवैया उसे गाकर पूर्ण कर लेना चाहता हो।
विवाह के मंगलमय आलम में, जहाँ हवा में मिठास और हँसी की झंकार घुली थी, औरतें एक-दूसरे के संग ऐसे गूँथी थीं, मानो फूलों की माला में रंग-बिरंगे धागे। उनकी बातें, कभी चुहल भरी, कभी हृदय को छूने वाली, उस उत्सव के रंग को और गहरा रही थीं।
एक कोने में, कुछ युवतियाँ, जिनके चेहरों पर नवयौवन की लाली थी, हँसते-हँसते दुल्हन की साड़ी की सिलवटों पर ठिठोली कर रही थीं। "अरी, यह साड़ी तो चाँदनी-सी है, पर ससुराल में इसे सँभालना आसान न होगा!" एक ने चंचल स्वर में कहा, और दूसरी ने तपाक से जवाब दिया, "साड़ी तो सँभल जाएगी, पर दिल को सँभालना सीख ले, बहन!" उनकी हँसी, मानो बरसात के बाद झरने की कल-कल, चारों ओर फैल गई।
पास ही, कुछ प्रौढ़ नारियाँ, जिनके चेहरों पर जीवन के अनुभवों की रेखाएँ थीं, आपस में बातों के गलियारों में खोई थीं। एक ने, मेंहदी से रचे हाथों को निहारते हुए, कहा, "यह रंग तो गहरा है, पर सच्चा रंग तो प्रेम का है, जो समय के साथ और निखरता है।" दूसरी ने, आँखों में एक पुरानी याद लिए, हल्के से मुस्कुराते हुए जोड़ा, "हाँ, पर प्रेम भी तो धीरे-धीरे सीखा जाता है, जैसे ढोलक की ताल।" उनकी बातों में एक गहरी सादगी थी, मानो पुरानी स्मृतियों की गठरी खोलकर वे जीवन का मोल बाँट रही हों।
कहीं दूर, एक बुजुर्ग नारी, जिसके बालों में चाँदी की चमक थी, अपनी सहेली से चुहल कर रही थी। "अरी, तू तो आज भी वही पुरानी बातें दोहराती है! उस जमाने में तेरा दूल्हा भी तो तुझ पर फिदा था!" दूसरी ने ठहाका लगाया, "हाँ, पर अब तो उसकी आँखें कमजोर हो गईं, अब मुझे ही उसे रास्ता दिखाना पड़ता है!" उनकी हँसी में वह पुराना स्नेह झलकता था, जो समय की धूल से कभी धुंधलाता नहीं।इन चुहलबाजियों और बातों के बीच, एक अनकहा बंधन था—प्रेम, स्मृति और आशा का। मानो प्रत्येक शब्द, प्रत्येक हँसी, उस विवाह के माहौल में एक रंग भर रही हो, जैसे गंगा के किनारे खिले कमल, जो सूरज की किरणों में मुस्कुराते हैं, पर अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलते।
मिठाइयों का स्टाल रंगीन कपड़ों और फूलों से सजा था। रसगुल्लों की मिठास और जलेबियों की सुनहरी चमक मेहमानों को लुभा रही थी। कुछ लोग भोजन कर रहे थे, कुछ अपनी बारी की प्रतीक्षा में गपशप में डूबे थे। हवा में हंसी और बातचीत की गूंज थी, पर बीच-बीच में मंगल महतो की कर्कश आवाज उस उल्लास को भेदती थी। धोती लपेटे, नंगे बदन, पसीने से तर-बतर, वह कामवालों पर चिल्ला रहे थे। उनका गला बैठ चुका था, पर क्रोध और चिंता की आग उनके भीतर धधक रही थी। उनके इकलौते पुत्र, अर्जुन प्रसाद महतो, उनकी आंखों का तारा, आज अपनी बहन की शादी में नहीं पहुंच सका था। मंगल महतो का दिल गुस्से और दुख के बीच झूल रहा था।
"अब देखो, एक तो बहन है!" उनकी आवाज में कटुता थी, पर उसमें एक पिता का दर्द छिपा था। "अगर उसकी शादी में भी नहीं आ सकता, तो क्या फायदा ऐसी नौकरी का?"
गांव के मास्टरजी, जिनके शब्दों में हमेशा एक शांत करने वाली शक्ति होती थी, ने आगे बढ़कर कहा, "महतो दादा, आप क्या कह रहे हैं? अर्जुन नौकरी थोड़े कर रहा है, वह तो देश की सेवा में लगा है। यह तो आपके लिए गर्व की बात है। देश की हालत खराब है, सीमा पर दुश्मन की नापाक नजरें टिकी हैं। इसीलिए उसे छुट्टी नहीं मिली।"
मंगल महतो की भौंहें तनी रहीं, पर मास्टरजी के शब्दों ने उनके मन के तूफान को कुछ देर के लिए शांत कर दिया। उनकी आंखों में अर्जुन की छवि उभर आई—वह हंसमुख चेहरा, जो बचपन में गाँव की गलियों में दौड़ता था, और अब सीमा पर बंदूक थामे खड़ा था।
तभी, दूर से एक गाड़ी की आवाज ने सारी हलचल को ठहरा दिया। धूल का गुबार उड़ता हुआ दिखा, और एक सेना की गाड़ी जनवासे के पास रुकी। उसमें से कई जवान उतरे, उनके कदमों में अनुशासन और चेहरों पर गंभीरता थी। सबसे आगे सूबेदार साहब थे, जिनके चेहरे पर कर्तव्य की कठोरता स्पष्ट झलक रही थी। मंगल महतो की आंखें अपने बेटे को खोज रही थीं, पर वह कहीं नहीं दिखा। एक अनजानी आशंका उनके दिल को चीरने लगी।
"आप में से मंगल महतो कौन है?" सूबेदार की आवाज गहरी और ठहरी हुई थी।
"जी सरकार, मैं ही हूं," मंगल महतो ने हाथ जोड़कर जवाब दिया और कुछ कदम आगे बढ़े। उनकी आवाज में विनम्रता थी, पर आंखों में बेचैनी थी।
सूबेदार ने एक पल को ठहरकर अपनी नजरें नीचे कीं, जैसे कुछ भारी कहना हो और शब्द उनके गले में अटक गए हों। वह पीछे मुड़े और अपने साथियों से कुछ देर मंत्रणा करने लगे। कुछ मिनट की फुसफुसाहट के बाद वह फिर लौटे। उनकी आंखों में एक दृढ़ता थी, पर कहीं गहराई में करुणा भी झलक रही थी।
"बिटिया की शादी के अरेंजमेंट के लिए हमें बटालियन के सीओ साहब ने भेजा है," उन्होंने कहा। "आपको अब कोई काम करने की जरूरत नहीं। सब कुछ हमारे हवाले छोड़ दीजिए। आपका बेटा अर्जुन सीमा पर ड्यूटी बजा रहा है, जहां से पीछे हटना या उसकी जगह किसी और को भेजना अभी संभव नहीं था। इसलिए हम यहां आए हैं।"
मंगल महतो का चेहरा भावशून्य हो गया। उनके मन में सवाल उठे, पर वह चुप रहे। सूबेदार के शब्दों में एक अजीब सा आश्वासन था, जो उनकी बेचैनी को कुछ देर के लिए थाम ले गया।
घर की हवा में उल्लास की मधुर लहरें तैर रही थीं, मानो प्रकृति स्वयं किसी उत्सव की साक्षी बनने को आतुर हो। परंतु उस उत्साह के बीच, एक कोने में चुपके से बैठी अर्जुन की पत्नी, अपने मन की उथल-पुथल से जूझ रही थी।
गाँव के एक बुजुर्ग ने धीमे स्वर में कहा, “पिछली बार जब बगल के गाँव का राधे तिवारी शहीद हुआ था, तब भी ऐसी ही गाड़ी लाम से आई थी।” उसकी बात अधूरी ही रह गई, जब दूसरा उसका मुँह दबाते हुए फुसफुसाया, “शुभ-शुभ बोल, आज अर्जुन की बहन की शादी है। यदि कुछ अनिष्ट हुआ होता, तो क्या यह उत्सव की रंगत बिखरती?”
दूसरे ने, मानो मन की गहराई से कुछ उभरते विचारों को थामते हुए, कहा, “लगता है अर्जुन कोई बड़ा अधिकारी बन गया है। देखो न, उसकी बटालियन की ओर से सिपाही काम करने आए हैं। मेरे दूर के रिश्ते के एक ब्रिगेडियर साहब के यहाँ तो बारहों महीने दो-चार सिपाही तैनात रहते हैं।” तीसरा, उसकी बात को बीच में काटते हुए, उसका हाथ पकड़कर उसे भोज की मेज की ओर ले गया, मानो अनकही आशंकाओं को हँसी-खुशी की लहरों में डुबो देना चाहता हो।
घर में शादी का उमंग चारों ओर बिखरा था। ढोल की थाप, हँसी-मजाक, और मेहमानों की चहल-पहल ने हवा को रंगीन कर दिया था। परंतु अर्जुन की पत्नी का मन उस उल्लास से कहीं दूर था। वह बार-बार उन सिपाहियों को देखने जाती, जो घर के कामों में जुटे थे। उसका हाथ अनायास ही फोन की ओर बढ़ता, और वह अर्जुन को फोन मिलाने की कोशिश करती, पर हर बार वही निराशाजनक स्वर—‘स्विच ऑफ’।
अर्जुन की पत्नी के मन में तूफान उठ रहा था। बहन के तिलकोत्सव में भी अर्जुन नहीं आ सका था। हर रात फोन पर उनकी बातें झगड़े में बदल जाती थीं। शादी के मात्र एक सप्ताह शेष रहने पर एक रात उनकी ऐसी तीखी तकरार हुई कि दोनों के बीच अबोला छा गया। तब से, जब भी उसने फोन मिलाया, जवाब में केवल सन्नाटा मिला।
वह अपने आप को कोस रही थी। “क्यों मैंने उससे झगड़ा किया? क्या उसकी कोई मजबूरी नहीं होगी? आखिर अपनी बहन की शादी जैसे अवसर पर भी वह नहीं आ सका!”
उसके मन में एक विचार कौंधा—शायद अर्जुन कोई ऐसा हथियार संभालता है, जिसे कोई और नहीं चला सकता। शायद इसीलिए, इस कठिन समय में उसे छुट्टी नहीं दी गई, और उसके बदले दूसरे सिपाहियों को भेजा गया।
इस विचार ने उसके हृदय को गर्व से भर दिया। वह मन ही मन मुस्कुराई। आखिर वह एक फौजी की पत्नी थी। उसका सीना गर्व से फूल उठा, और उसकी आँखों में एक नया विश्वास चमकने लगा, मानो वह कह रही हो, “मेरा अर्जुन, मेरे देश का सिपाही, अपने कर्तव्य में डूबा है।”
ऐसा विचार आते ही उसके मन में गहन शांति उतर आई थी, जैसे नदी का किनारा लहरों की उमंग को देखकर भी स्थिर रहता है।
रात उत्सव की चादर ओढ़े बीती। सिपाहियों ने बैंड-बाजे पर नाच-गाना किया, जैसे वे भी इस परिवार का हिस्सा हों। हंसी, गीत और तालियों की गूंज में रात बीत गई। सुबह, जब सूरज की पहली किरणों ने नववधू के माथे को छुआ, विदाई की रस्म पूरी हुई। आंसुओं और आशीर्वादों के बीच वह अपने नए सफर पर निकल गई। भाड़े के बर्तन-भांडे और तंबू का सामान समेटने में अगला दिन भी बीत गया। गाँव फिर से अपनी शांत लय में लौटने लगा था।
जब सारा काम खत्म हुआ, सूबेदार परिवार के साथ बैठे। चारों ओर जवान खड़े थे, उनके चेहरों पर एक गहरी उदासी थी। सूबेदार ने गहरी सांस ली और बोलना शुरू किया, "मरना तो एक दिन सभी को है, पर देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करना गौरव की बात है।"
उनके शब्द हवा में ठहर गए। बोलते हुए उनका गला रूंध गया, जैसे कोई अनकहा दुख उनके गले को जकड़ रहा हो। एक जवान ने आगे बढ़कर उन्हें पानी की बोतल दी। पानी पीते हुए सूबेदार ने इशारा किया, और चार जवान एक बड़े से लकड़ी के बक्से को लाए। उसे द्वार पर रखे तख्त पर रखा गया। जब उसका पर्दा हटाया गया, नीचे तिरंगे में लिपटा एक ताबूत दिखा। ताबूत पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—एक्स हवलदार अर्जुन महतो।
उसके बाद, समय मानो रुक गया। अर्जुन की पत्नी ने दौड़कर ताबूत को छुआ, और उसका विलाप आकाश को चीर गया। मंगल महतो स्तब्ध खड़े थे, उनकी आंखें सूखी थीं, पर दिल में एक तूफान उमड़ रहा था। गांव की हवा में सिसकियों की गूंज थी, और सूरज, जो अभी तक उत्सव का साक्षी था, अब मूक दुख का गवाह बन चुका था।
आंसुओं का सैलाब बह रहा था, पर उसमें कहीं गर्व की एक बूंद भी थी। अर्जुन ने अपने प्राण देश को सौंप दिए थे, और उसका बलिदान उस छोटे से गाँव की मिट्टी को अमर कर गया। मंगल महतो की छाती में दुख और गौरव एक साथ धड़क रहे थे, जैसे कोई गीत अधूरा रह गया हो, पर उसकी धुन अनंत काल तक गूंजती रहे।
दिवाकर पांडेय चित्रगुप्त
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