कच्चा आम

कच्चा आम
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गावों में अब कुछ ही कुएं के ढांचे बचे हैं जो संभवतः आने वाले कुछ वर्षों में समाप्त हो जायेंगे। अभी गांव-गांव पानी की बड़ी-बड़ी टंकियां बन रही हैं। जो आने वाले वर्षों में नलों को समाप्त कर देंगी। फिर वह भी इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएंगे।

कुछ वर्षों बाद पानी की टंकियों का भी कोई न कोई विकल्प आ ही जाएगा। 

जब लोग कुएं का पानी पीते थे तब उसमें मेढ़क भी होते थे। वो अगर नहीं होते थे तो उन्हें ऊपर से डाल दिया जाता था जिससे वह छोटे-छोटे कीड़ों को खाकर पानी साफ रखें। कई बार ये मेढ़क बाल्टी के साथ ऊपर भी आ जाते थे। जो दिखने पर निकाल दिए जाते थे। 

बुधिया ने ससुर के लिए खाना परोसा और भीतर जाकर बैठ गई। घर में घुप अंधेरा था लेकिन लालटेन जलाने का मतलब था कीट पतंगों को आमंत्रित करना। ससुर सुखराम खाना खाना शुरू करते ही कहने लगे-

"वाह! जी वाह! आज तो खाने में कुछ अलग ही मजा आ रहा है। जिओ बहुरिया क्या खाना बनाया है तूने और दाल में पड़ा आम आय! हाय! मजा ही आ गया। समधिन ने ढूढ़कर भेजा होगा मेरे लिए..."

सुखराम खा कम रहे थे और उसका गुणगान ज्यादा कर रहे थे। यह गुणगान उनकी बीवी सुखिया के गले नहीं उतर रहा था। वह बहू बुधिया के खानदान की ख़बर तो पहले ही ले चुकी थी बस सुखराम ही बचे थे जिनकी खोजखबर लेना बाकी था।  

बरसात का मौसम था। दिन में हुई बारिश के कारण शाम होते ही लालटेन जैसे ही जला उसपर पतंगों ने ऐसा हमला किया कि फौरन उसे बुझाना पड़ा। बादलों के बीच से चांदनी रह-रहकर झांक जाया करती थी। घर का सारा काम उसी चांदनी के भरोसे चल रहा था। 

दिन में सास खेत में काम करने गई हुई थी तभी जोर की बरसात आ गई थी और सारा लकड़ी-कंडा भीग गया था। हालांकि बुधिया घर में ही थी लेकिन जब बरसात आई वह सो रही थी। तेज हवा से जब खिड़कियां बजने लगीं तब उसकी निद्रा भंग हुई और आंगन में आकर देखा तो सब गीला हो चुका था। 

बारिश में भीगते हुए सास आई तो यह देखकर आग बबूला हो गई। वह बुधिया से खूब लड़ी लेकिन वह चुपचाप बैठी सुनती रही और कुछ न बोली। 

बुधिया कमअक्ल थी। वह मेहनती तो इतनी थी कि कोई पहाड़ तोड़ने के लिए भी कहे तो वह तैयार हो जाती थी लेकिन उसका दिमाग ज्यादा काम नहीं करता था। इसलिए अपने मन से करने के नाम पर वह जीरो थी। 

झाड़ू लगाते समय वह कूड़ा इकट्ठा कम करती और फैला ज्यादा देती थी। पाकशाला में जब भी वह चौका लगाती तो इतना पानी उड़ेल देती कि तेज धूप होने पर भी उसे सूखने में दोपहर तक इंतजार करना पड़ता। कपड़े धुलाती तो उसके सारे बटन तोड़ देती। सास की धोती धुलाकर निचोड़ते समय वह कई बार फाड़ चुकी थी। 

बच्चों का पाखाना साफ करते हुए वह बच्चे को तो पूरा नहला ही देती थी साथ ही अपने भी सर से लेकर पैर तक लबेड़ लेती थी। 

घर में कोई फिसलकर गिर जाए तो वह बच्चों जैसा हंसने लगती। फिर काफी देर तक उसकी हंसी बंद नहीं होती थी। यही हाल उसके रोने का था। कोई जोर से बोल दे तो रोने लगती। और रोती भी ऐसा कि आंख से आंसू काम गिरते और नाक से ज्यादा गिरता। उसके बाद बालों को नोच नाच कर वह ऐसा शक्ल बना लेती कोई दिन में भी देख ले तो उसके चुड़ैल होने का शक हो जाए। 

उसके बाद उनके श्रीमान पतिदेव का तांडव शुरू होता। वह चिलम फूंककर आता और सारा घर अपने सिर पर उठा लेता। वह गायों-भैंसों को खोलकर हांक देता। फिर सुखिया और सुखराम का पूरा दिन यही सब सम्हालने में निकल जाता था। इसी डर से कोई उसे कुछ बोलता नहीं था। 

बस एक सुखिया थी जिसकी बात का वह कभी बुरा नहीं मानती थी। सुखिया जितना गुस्सा होती वह आंचल से मुंह ढककर उतना ही हंसती। 

उधर सुखिया बहुत सफाई पसंद महिला थी। वह दिन में तीन बार नहाती और हजार बार अपना हाथ धोती थी। इसलिए सास और बहू की बनती बिल्कुल नहीं थी। 

वैसे सुक्खे यानी सुखराम का बेटा भी ऐसा था कि उसमें कोई भी ऐब बचा न था जो न हो। वह दारू पीता था, गांजा भी फूंकता था। खैनी गुटखा बीड़ी का तो उसका कोई हिसाब ही नहीं था। भला ऐसे लड़के के साथ कौन अपनी बेटी का पल्लू बांधता। 

बुधिया का बाप एक बार गलती से बुधिया की शादी के लिए बातचीत करने आ गया था उसके बाद सुक्खे उनके पीछे ही पड़ गया। जब तक शादी तय नहीं हो गई तब तक उसने ताब ही न लिया। 

सुक्खे का बहू के प्रति अतिरिक्त प्रेम की वजह भी शायद यही थी। क्योंकि बड़ी मान-मनौवल के बाद बुधिया के बाप ने शादी के लिए हां किया था। 

हर गरीब आदमी के पास एक झूठी मर्जाद का आवरण ही तो होता है जिसके सहारे वह अपनी जिंदगी काट लेता है। किसी बाप के लिए बेटे की शादी न होने से बड़ी बदनामी वाली बात भला और क्या हो सकती है। बुधिया के बाप ने उनकी लाज रख ली उसकी कीमत वह बुधिया पर लुटा रहे थे। 

ईंधन भीगने के बाद जब सास का पारा चढ़ा तो उसके ससुर ने ही सम्हाला था। वह जैसे ही लड़ने के लिए तैयार हुई सुखराम बीच में खड़ा हो गया। उसने बीवी से बहुत भला-बुरा सुना लेकिन बुधिया पर आंच नहीं आने दी। 

विशेष परिस्थितियों के लिए भुसैले में छुपाकर रखी लकड़ियां सुखराम खुद निकालकर लाया और खुद ही चूल्हा भी जला दिया। उसके बाद का काम बहू को सौंपकर वह खुद मवेशियों के इंतजाम में लग गया।

दिन में बुधिया का भाई आया था जो झोला भर आम लाया था। पके आमों को छांटकर अलग कर लिया गया था और कच्चे आमों को अलग भरकर रख दिया गया था। दाल में डालकर पकाया हुआ कच्चा आम सुखराम को बहुत पसंद था। सुखिया आम के सीजन में जब भी दाल बनाती थी तो तो सुखराम के कच्चे आम छीलकर दाल में डालना नहीं भूलती थी। 

सुखराम ने दाल वाले आम को चूसकर खाया और उसकी तारीफ करने लगे। सुखिया दिन से वैसे ही गुस्सा थी ऊपर से सुखराम के मुंह से बहू की तारीफ सुनकर और जल भुन गई। 

अगली बार जैसे ही सुखराम के मुंह से आम की तारीफ निकली वह टॉर्च लेकर आ गई। 

"दिखाओ तो कौन सा आम डाल दिया तुम्हारी बहुरिया ने जो खाकर तुम्हारी आत्मा तृप्त हुई जा रही है। कल से मैं भी वही आम डाला करूंगी।"

सुखिया ने इतना कहकर दप्प से टॉर्च जलाया और आंगन रोशनी से भर गया। थाली में कुएं के पानी के साथ आया मेढ़क दाल में उबलकर थाली में रखा था। सुखराम उसी को आम समझकर चूस रहे थे।



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