कहानी

नौकरी, बेरोजगारी, आत्मसम्मान और रिश्ते
***************************************

वैसे उनका नाम था जिग्नेश पर सब उन्हें झिगने-झिगने कहकर बुलाते थे। क्यों बुलाते थे इसका पता नहीं, पर गांवों में एक रिवाज सदियों से है कि हर व्यक्ति का कहने वाला नाम और जबकि दस्तावेजों में दर्ज नाम और होगा। कई बार तो बैंक से आए किसी पेपर को उसी आदमी के बच्चे 'मैं नहीं जानता हूं' कहकर लौटा देते हैं। कल्प नाथ मिश्र का नाम पूरे गांव में कलपू होगा ये कौन कह सकता है? वहीं गोवर्धन प्रसाद वर्मा गांव के गोबरे होंगे इसका अनुमान तो उसकी होने वाली बीवी को भी नहीं था। शादी के सालों बाद एक दिन उनकी बुआ जब उन्हें गोबरे कहकर संबोधित कर रही थीं तब उसे पता चला कि गोबरे नाम उनके गोबर गणेश का ही है। 

ये नाम बिगाड़ने वाली परंपरा केवल अपने ही देश में नहीं है। बल्कि यह तो सर्वव्यापी है। ब्राजील के सर्वकालिक महान फुटबॉलर एडसन अरांतेस डो नेसीमेंटो जो कि काला हीरा के नाम से मशहूर थे उन्हें कोई-कोई ही जानता होगा लेकिन पेले को सब जानते हैं। बचपन में खेलते हुए किसी लड़के ने उन्हें पेले कहकर चिढ़ाया था जिसपर वो खूब चिढ़े थे उसके बाद सब बच्चे उन्हें पेले ही कहने लगे। एक दिन वह भी आया जब पूरी दुनिया ने उन्हें इसी नाम से जाना। 

झिगने दसवीं में पढ़ते समय किताबों के बीच में फिल्मी कहानियां रखकर पढ़ने के लिए कुख्यात थे जो कि वह गांव के ही मेले से लेकर आए थे। कुछ लड़कों का कहना था कि वो 'वैसी' वाली किताबें भी अपनी किताबों में छुपाकर रखते हैं लेकिन ये कुछ लड़के वही थे जो स्वयं कई बार वैसी किताबें पढ़ते हुए अध्यापकों द्वारा पकड़े जा चुके थे। मास्टरों द्वारा पकड़ी और जब्त की गई वे किताबें बाद में मास्टरों के दराजों से बरामद की गई थीं जो उसदिन के बाद स्कूल के चपरासियों के बीच मनोरंजन का विषय बन रही थी।

इंटर करते समय वह 'जीजा-साली की शायरी' नाम की एक किताब ले आए थे जिसके शेरों को रटकर वह खाली कक्षा में सहपाठियों का मनोरंजन किया करते थे। वह पढ़ते उतना ही थे जितने में कि पास हो जाएं सौ में से तैंतीस नंबर से ज्यादा के बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था। 

उनके बाप का नाम था जगनलाल और माता का कल्याणी देवी, दोनो पेशे से अध्यापक थे। झिगने ने पढ़ाई करनी शुरू की तो सीधे एमए पर जाकर रुके। उनके प्राप्तांक का प्रतिशत कितना था इससे न उनके मां-बाप को कुछ लेना-देना था न उन्हे स्वयं ही। वह पास हो जा रहे थे यही उन सब के लिए किसी नियामत से कम नहीं था। 

झिगने ने एमए करने के बाद साल दो साल इधर-उधर हाथ मारा फिर लोगों की देखा-देखी सिविल सर्विसेज की तैयारी करने लगे। हालांकि यह बात उनके शिक्षक बाप से ज्यादा उन्हे भी पता थी कि उनका होना कुछ नहीं है फिर भी कुछ न कुछ तो करना ही था इसलिए सिविल सेवक बनने की तैयारी करने लगे। उन्होंने कोई भी वैकेंसी खाली नहीं जाने दी सबमें फॉर्म भरा और फेल हुए। उन्होंने खूब परीक्षाएं दी लेकिन सफलता कहीं नहीं मिली। उनके कुछ दूर के रिश्तेदार पीएचडी कर रहे थे तो उन्होंने भी शुरू कर दी। पीएचडी चल ही रही थी कि प्रदेश सरकार ने शिक्षा मित्रों की भर्ती निकाली तो ये शिक्षा मित्र हो गए। 

एक आदमी जो जिला अधिकारी होना चाहता हो वो शिक्षा मित्र हो जाए तो वह सिस्टम की दशा का क्या हाल करेगा किसी को यदि इस विषय पर शोध करने की आवश्यकता हो तो उसके लिए झिगने बहुत काम के आदमी साबित हो सकते हैं। 

स्कूल में झिगने पढ़ाते कम और रौब ज्यादा झाड़ते थे। वह किसी भी मास्टर या बच्चे को आदमी नहीं समझते। बात-बात में सबको घुड़की देते रहते। वह अक्सर ये कहते हुए पाए जाते कि वह गलती से शिक्षामित्र हो गए हैं बल्कि होना तो उन्हे जिला अधिकारी था। 

उनकी बातों से ऐसा लगता जैसे उनके जिला अधिकारी न बन पाने के पीछे उस प्राथमिक विद्यालय के बाकी सहकर्मियों की ही कोई साजिश हो। उनकी बातें सुनकर सभी सहकर्मी अपराधबोध का शिकार हो जाते और वह अपराधबोध फिर विद्यार्थियों पर निकलता। 

गुस्सा झिगने का और पिटता बेचारा राम दुलारे। झिगने के शिक्षामित्र हो जाने की खबर जब लड़कियों के परिजनों तक पहुंची तो झिगने जिन्हें फूटी आंख न सुहाता था वह उन्हें अचानक सुंदर और सजील दिखने लगा। उनकी गिद्ध दृष्टि अचानक झिगने के आस-पास घूमने लगी। 

नौकरीशुदा कुंवारा आदमी बाजार में खुले रखे गुड़ के समान होता है जिसपर वर-देखुआ रूपी मक्खियां भिनभिनाने लगती हैं। लड़के की हर बुराई के आगे नौकरी-पेशा होने की चमकदार पट्टी नमूदार होने लगती है। फिर मोहल्ले का कलूटा पूरे कस्बे का सुंदर लाल बन जाता है।

कुछ दिनों बाद झिगने की शादी हो गई। जिंदगी की गाड़ी चल पड़ी। समय बीता नन्हे मुन्ने भी हो गए। उनके बाप जगनलाल नौकरी कर ही रहे थे इसलिए झिगने के शिक्षामित्र होने या न होने से कोई खास फर्क नहीं था। फिर भी कुछ तो कर ही रहा हूं की सोच से वो जैसे-तैसे स्कूल जरूर चले जाते थे। इधर घर में सास बहू में भी खूब जमती थी और बाप-बेटे में भी। 

कहते हैं न कि समय बड़ा बलवान होता है। कुछ सालों बाद उत्तर प्रदेश सरकार की योजना बदली और उन्होंने सभी शिक्षा मित्रों को नियमित शिक्षक के तौर पर नियुक्त कर लिया। अब झिगने परमानेंट मास्टर हो गए। मास्टरी से उन्हें जितनी चिढ़ थी वही मास्टरी उनके गले पड़ती जा रही थी। 

इनकी नौकरी परमानेंट हुए अभी महीना भी नहीं बीता था कि घर में अनबन शुरू हो गई। सास-बहू के जिस रिश्ते पर गांव वाले मिसाल देते नहीं थकते थे उनके बीच जूतम पैजार शुरू हो गया। 

कल्याणी देवी सख़्त मिजाज वाली महिला थीं। शिक्षक की नौकरी ने उन्हें और बोल्ड बना दिया था। वह सीधा बोलती थीं और सुनती बिल्कुल नहीं थीं। हर बात के लिए उनका सबसे पहला जवाब 'न' ही होता था हालांकि वो उसे पूरा भी जरूर करती थीं लेकिन न कहे बिना उन्हें चैन नहीं मिलता था।

“अम्मा! मायके जाना है।”

“ऐसे-कैसे चली जाओगी अभी पिछले महीने ही तो गई थी।”

“अम्मा! एक साड़ी लेनी थी।”

“पैसे पेड़ पर लगते हैं क्या जो जब मन हुआ मुंह उठाकर साड़ी खरीदने के लिए खड़ी हो जाती हो।”

“अम्मा! चावल खत्म होने वाला है।”

“अरे ऐसे कैसे खत्म हो गया अभी हफ्ते भर पहले ही तो दो बोरा डराई करवाया था। घर में चोर आते हैं क्या?”

“अम्मा! बच्चों के लिए कपड़े लेना था।”

“इतने सारे तो हैं बच्चों के पास और लाकर दुकान खोलोगी क्या?”

कल्याणी देवी के पास किसी बात का सीधा जवाब नहीं होता था। हालांकि वह मान हर बात लेती थीं लेकिन वह आदत से मजबूर थीं। बहू को मायके भेजने के लिए उन्होंने हमेशा एसी वाली कार ही बुक करवाया था। साड़ियां खरीदने के लिए जब वह दुकान में जातीं तो जाते ही बोल देतीं कि सबसे बढ़िया वाली दिखाना। उनकी इसी आदत पर बहू उनके हर नखरे उठाने को तैयार रहती थी। लेकिन उल्टी बातें उसे अखरती भी थीं। 

वह बहू को खूब सुनाती थीं। लेकिन जब तक वह अपनी सारी जरूरतों के लिए उनपर निर्भर थी तब तक तो उसने सब हंसकर सुना और झेला लेकिन जैसे ही पति की नौकरी परमानेंट हुई उसका भी सोया हुआ आत्मसम्मान जाग गया। अब कल्याणी देवी एक बोलतीं तो वह दस बोलने के लिए पहले से तैयार रहती। अगर वह शुरू से ही ऐसी होती तब तो कल्याणी देवी ने उसके साथ कुछ न कुछ समझौता कर ही लिया होता। लेकिन बहू के तेवर अचानक बदले थे जो उन्हें बिल्कुल भी हजम नहीं हो रहा था।

झिगने को नियमित हुए अभी तीसरा महीना ही शुरू हुआ था कि घर में बंटवारा हो गया। सास-ससुर अलग और बेटा-बहू अलग। रोज-रोज की खिटपिट से जगन लाल बहुत परेशान हो चुके थे इसलिए बेटे के अलगाव को उन्होंने बड़े सहज रूप से लिया। उन्हें बेटे के अलग होने के दुःख से ज्यादा खुशी इस बात की थी कि चलो बेटा अपने पैरों पर खड़ा तो हो गया। 

झिगने ने भी मां बाप से कुछ नहीं लिया। वह सब जरूरत का सामान बाजार से खरीद कर ले आए। नया-नया सरकारी तनख्वाह था तो उन्हें पैसा खरचने में कोई खास दिक्कत भी न हुई। शादी में मिली मोटरसाइकिल स्टार्ट होने में थोड़ा परेशान कर रही थी तो सब खर्चे के बीच वो भी नई आ गई। 

बाजार का एक सिद्धांत है कि नौकरी वाला आदमी अगर एक मांगे तो वह दस देने के लिए तैयार रहता है। वह अपने वायदे पर खरा उतरे या न उतरे पर बाजार को भरोसा रहता है कि उसका पैसा एक न एक दिन आ ही जाएगा। 

झिगने की जिंदगी में सब ठीक चल रहा था लेकिन कुछ ही दिनों में प्रदेश की सरकार बदली तो उसने शिक्षा मित्रों को पुनः नियमित से अनियमित कर दिया। सारा सपना आसमान से गिरा और जमीन पर आकर चकनाचूर हो गया। इस समय कई शिक्षा मित्रों ने आत्मदाह तक कर लिया। कई रोज तक चक्का जाम आंदोलन चला फिर सब टांय टांय फिस्स हो गया। 

नौकरी जाते ही कुछ दिनों में पैसों की किल्लत शुरू हो गई। नौकरी दिखाकर वह बाजार से काफी कुछ उधार लेकर आ गए थे। लेकिन शिक्षामित्र के तनख्वाह से तो महीने का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा था। 

बाप के राज में वह जिस पैसे को पानी की तरह बहा चुके थे वही अब उन्हें दूर की कौड़ी लगने लगा। यूपीएससी की तैयारी का रौब, अपने सहकर्मियों को कही गई बातें, विद्यार्थियों को अनायास ही परेशान करने के सारे यत्न अचानक उन्हें फीके लगने लगे। 

“जेब में जब गर्मी न हो न तब आदमी आखिरकार जमीन पर आ ही जाता है।”

कुछ दिनों में दुकानदार घर तक तगादा करने भी आने लगे। यह बात जगनलाल को पता चली तो उन्होंने चुपचाप बाजार की उधारी चुकता कर दी लेकिन बेटे को एक शब्द भी न कहा। 

पैसा घटते ही बहू के तेवर भी आसमान से जमीन पर आ गिरे। वह आत्मसम्मान जो पति के पैसों से जागा था वह उसकी नौकरी जाते ही फिर चला भी गया। ताड़का लगने वाली सास में फिर से उसे सीता मैया के दर्शन होने लगे। 

एक तरफ पैसों का राज था और दूसरी तरफ भूख गरीबी अशांति और अनिश्चितता। बीच में सिर्फ एक अहम की पतली सी दीवार खड़ी थी जो कुछ शब्दों के वार से भरभराकर कभी भी गिर सकती थी। ऐसी परिस्थिति में झिगने तो कुछ बोलने वाला था नहीं जो कुछ भी करना था सब उसकी बहू ने ही करना था। 

 एक रोज शाम को स्कूल से आकर कल्याणी देवी बरामदे में बैठी चाय पी रही थीं कि बहू रोते बिलखते हुए आकार उनके पैरों में गिर गई। 

“मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई अम्मा मैने आपसे अलग नहीं होना चाहिए था।”

कल्याणी देवी ने अपना चश्मा उतारकर आंचल से पोंछा और फिर से लगा लिया। जगनलाल पास ही बैठे मुस्कुरा रहे थे वो बोले - “भक्क बइधी बाप और बेटे में भला बंटवारा होता है कहीं? जा दौड़कर चाय बनाकर ले आ तब तक मैं दूसरे किचन से सारा सामान समेट कर इधर ले आता हूं। 
#चित्रगुप्त

Comments

Popular posts from this blog

बड़े साहब बड़े कवि

दो रुपए

बेकार आदमी