समीक्षा : फत्ते-पुराण

फत्ते-पुराण : सरल व्यंग्यकार की गहरी चोट

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चित्रगुप्त जी का व्यंग्य-संग्रह 'फत्ते-पुराण' पढ़े एक सप्ताह से अधिक हो गया था पर जीवन के झंझावात व्यक्ति को सदैव मन का कब करने देते हैं। आज जब कुछ अवसर मिला तब 'फत्ते-पुराण' फिर याद आया। 'फत्ते-पुराण' चित्रगुप्त जी की शायद सातवीं पुस्तक है। वे मूलतः व्यंग्यकार ही हैं। हालांकि उन्होंने 'नैहर' और 'दो रुपया' जैसी अति संवेदनशील कहानियाँ भी लिखी हैं जिन्हें पढ़कर पाठक के सिर्फ आँसू नहीं निकलते,  वह फफककर रो पड़ता है। इस तरह गंभीर भावभूमि पर भी चित्रगुप्त जी की तमाम कहानियाँ, लघुकथाएँ हैं लेकिन जब आप इनके समग्र लेखन पर दृष्टि निक्षेपित करेंगे तब आप भी वही कहेंगे जो मैं कह रहा हूँ। सात पुस्तकों में से चार सिर्फ व्यंग्य पर ही हैं। वे चाहे गद्य लिखें या पद्य उसमें व्यंग्य आ ही जाता है।


आलोच्य पुस्तक 'फत्ते-पुराण' छोटे-छोटे व्यंग्य-लेखों का संग्रह है। व्यंग्य में जबसे हास्य आया है,व्यंग्य की धार थोड़ी कुन्द हुई है। व्यंग्य को मनोरंजन का साधन नहीं बनाना चाहिए। अगर आप सधे व्यंग्यकार हैं तो व्यंग्य की भूमि पर मर्म और संवेदना उगाइए। आपको और पैना व्यंग्य दिखेगा। इस संग्रह का एक छोटा लेकिन सीधे दिल पर धक से लगने वाला व्यंग्य 'सीख' देखें। व्यक्ति पहली बार कोठे पर गया है। कमरे का तूफान जब थमा तो लाली ने उसे गाली देते हुए सब छीन लिया और लात-मूकों से मारते हुए कमरे से बाहर कर दिया। बगल की मीना ने पूछा– "क्या हुआ लाली! इतना गुस्सा क्यों हो रही है?"


"कुछ नहीं रे! बस नया बहका हुआ आदमी था। बीवी-बच्चे वाला भी है। स्याला उनका पेट भरने का भसोट नहीं और इधर मुँह मारने आ गया था। इसलिए मैं नहीं चाहती कि वो यहाँ से अच्छा अनुभव लेकर जाए जिससे उसका बार-बार यहाँ आने का  मन हो।"


व्यंग्यकार का दायित्व विदूषक होना नही होता। उसका दायित्व है समाज की विसंगति को इतने चोटिल ढंग से रखे कि उस विसंगति को जन्म देने वाले तिलमिला उठें। उन्हें अपराध बोध महसूस हो। वे एक आदर्श समाज की कल्पना करने लगें। चित्रगुप्त के व्यंग्य हास्य और भावुकता से मुक्त होकर सिर्फ चोट करते हैं । एक व्यंग्य देखें....


चंगू...यार चौराहे पर बड़ा शोर हो रहा है,आखिर माजरा क्या है?


मंगू...कुछ नहीं यार! बस वहाँ के चौकीदार ने किसी गली के कुत्ते को डण्डा मार दिया था जिसे एक 'डाग-लवर' ने देख लिया।


चंगू...कौन है वो डाग-लवर?


मंगू...अरे वही हैं पिछली गली वाले शर्मा जी जिनका अपने भाई के साथ केस चल रहा है।


एक सफल व्यंग्यकार वही है जो निर्भीक होकर बिना किसी समझौता के समाज की पीड़ा, दलित, शोषित, पीड़ित लोगों पर सरकार की नीति और व्यवस्था पर अपनी सजग दृष्टि से सदैव निगरानी करे और जैसे ही कुछ गड़बड़ दिखे उसपर करारी चोट करे। चित्रगुप्त इस लिहाज से भी पीछे नही हैं। एक और व्यंग्य देखें--


"यार जमूरे एक बात बताओ?"


"क्या उस्ताद?"


"बैठक में टंगा हुआ सम्मानपत्र, सीने पर लगा हुआ तमगा या अखबार में छपे पुरस्कारों के इस्तहार देखकर पहला खयाल तुम्हारे मन में क्या आता है?"


"यही की आदमी जुगाड़ू है और इसकी पहुँच सत्ता के गलियारों तक है।"


चित्रगुप्त का व्यंग्य पढ़कर एक बात जो सबसे पहले मन में आती है वह यह कि व्यंग्य में लफ्फाजी न होकर सिर्फ उद्देश्य होना चाहिए। जो व्यंग्य कम शब्दों में अपनी पूरी बात समाज के समक्ष रख दे वह श्रेष्ठ व्यंग्य होता है। चित्रगुप्त की दृष्टि समाज के सभी वर्ग पर बराबर है। उनका व्यंग्य किसी खांचे में नही है। वे जाति-वर्ग, राजा-प्रजा, ऊँच-नीच को न देखकर सिर्फ विसंगति देखते हैं। समाज को पढ़ने की उनकी अपनी दृष्टि है और जैसे ही कहीं असहज होते हैं, अपने व्यंग्य के माध्यम से कह देते हैं । एक व्यंग्य देखें--


"एक कुत्ता भौंक रहा था। दूसरे कुत्ते ने उसकी आवाज सुनी और वह भी आकर भौंकने लगा। फिर क्रमश: तीसरा, चौथा, पांचवाँ, छठवाँ, सातवाँ और आठवाँ आकर भौंकने लगा। कुत्तों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। थोड़ी देर बाद गाँव के सारे कुत्ते खेत-खलिहान, सड़क,पगडण्डी पर आकर भौंकने लगे।

मैने देखा कि वह कुत्ता जिसने भौंकने की शुरूआत की थी, पीपल के पेड़ के नीचे पड़ा आराम से सो रहा था।"


व्यंग्यकार को निरीह नहीं होना चाहिए। उसमें विसंगति को उघाड़ने का माद्दा होना चाहिए। व्यंग्य-लेखन समझौता करने एवं विनम्र होने से रोकता है। विनम्रता व्यंग्य की धार को कुन्द करती है। इसलिए व्यंग्यकार को भावुक होने से बचना चाहिए। चित्रगुप्त व्यंग्य-लेखन के सभी शर्तों को पूरा करते हैं। एक और व्यंग्य देखें--


"हैलो सर, एक ब्रेकिंग न्यूज है। संवेदनपुर चौराहे पर कुछ लड़के एक बुजुर्ग को पीट रहे हैं।"


"क्या पीटने वाले हिन्दू गुण्डे और पिटने वाला मुसलमान है?"


"नही सर!"


"तो फिर मारने वाले मुस्लिम और मार खाने वाला हिन्दू होगा?"


"जी नहीं सर..!"


"फिर ऊंची जाति नीची जाति वाला कोई एंगल?"


"नहीं सर ऐसा भी कुछ नहीं है।"


"तो फिर ये कौन सा ब्रेकिंग न्यूज है? जाओ कोई दूसरी खबर ढूढ़ो।"


'फत्ते-पुराण' के लगभग सभी व्यंग्य में करारा पैनापन है तथा प्रहार की क्षमता बड़ी तीखी और तेज है। चित्रगुप्त ने मनोरंजन की दृष्टि से व्यंग्य नहीं लिखा है। इनकी दृष्टि व्यापक है जिससे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की विसंगति को आपने उघाड़ा है। इन्होंने सिर्फ ताना मारने के लिए व्यंग्य नहीं लिखा है बल्कि अपने व्यंग्य की धार से वे समाज को एक नयी दिशा देते दिखते हैं। इनके व्यंग्य में कटाक्ष, विद्रूपता,परिहास लगभग एक साथ आता है जिससे व्यंग्य और पैना हो उठता है। चूंकि साहित्य का उद्देश्य परिवर्तन के साथ एक नयी चेतना पैदा करना भी होता है, जिसका पूरा भान व्यंग्यकार को है। पैंसठ व्यंग्य-लेखोंवाले इस व्यंग्य-संग्रह को पढ़ने के बाद यह कहते हुए आश्वस्त हुआ जा सकता है कि चित्रगुप्त अपने व्यंग्य के माध्यम से अपने समाज की समालोचना करते चल रहे हैं।


भविष्य में जब भी व्यंग्य लेखों का इतिहास दर्ज किया जाएगा तब न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित यह एक सौ बीस पृष्ठीय व्यंग्य-संग्रह ‘फत्ते-पुराण’ याद किया जाएगा।


पुस्तक - फत्ते-पुराण

विधा - व्यंग्य

लेखक - चित्रगुप्त

प्रकाशक - न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली

 समीक्षक - राजेश ओझा

                   गोण्डा, (उ० प्र०)।

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