वीथियों के बीच

"हमें उतार दिया जिंदगी ने बीच सफर
हमारे पास यहीं तक का ही किराया था" 
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शेर ऐसा ही होता है वो जब दहाड़ता है तो सारा जंगल मूक कोलाहल से भर जाता है। 

आदमजात के जीवन का सोलहवां वसंत आते आते उसके अंदर एक लयात्मकता जन्म लेने ही लगती है। यह वो समय होता है जब जिंदगी का शुरूर चढ़ना शुरू होता है। यह समय जीवन में रंगीन सपने देखने का होता है।  इसी समय उसके अंदर की कोमलता काव्यात्मक होने लगती है। जीवन के इस मोड़ पर शायद ही कोई ऐसा हो जिसने  तुकबंदियां न की हो या कुछ न कुछ काव्यात्मक न लिखा हो। उन्हीं में से कुछ विशिष्ट प्रकार के जीवों को कविताएं पकड़े रह जाती हैं, तो वे आजन्म कुछ न कुछ लिखते रहते हैं।

कुछ सोलह के बाद दो चार साल में कविता से अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। कुछ की कविताई बीवी जान के चप्पलों और जूतों की खातिरदारी के बाद छूटती है। कुछ बड़े ढीठ प्रकृति के होते हैं जो जीवन की किसी भी परिस्थिति में लिखना नहीं छोड़ते ये इस प्रकार के जीव होते हैं जो चाहते हैं कि दुनिया उनके कहे के हिसाब से चले।

लयात्मक अभिव्यक्ति की अलग अलग विधाएं हैं उन्हीं से एक का नाम ग़ज़ल है। कारण जो भी हो पर आजकल गजलें खूब लिखी जा रही हैं। ऐसा लोग कहते हैं। लेकिन ये कब नहीं लिखी जा रही थीं, इसके बारे में कोई कुछ नहीं कहता। 

मुझे ऐसा लगता है कि लिखते लोग पहले भी थे लेकिन तब उनकी ग़ज़लें सिर्फ डायरियों की शोभा बढ़ाती थीं और फिर उनके साथ ही विलीन भी हो जाती थीं। लेकिन अब सोशल मीडिया के बढ़े प्रभाव के कारण वो जन जन पहुंच रही हैं जिससे लोगों को पता चल रहा है कि वो लिखी/कही जा रही हैं। 

आज का हर आदमी लेखक है। हर आदमी संपादक है और वही आदमी पाठक भी... लोग खूब लिख रहे हैं अपने आप को अभिव्यक्त कर रहे हैं। हर आदमी प्रेमचंद धर्मवीर भारती मीर गालिब या दुष्यंत तो नहीं हो सकता लेकिन जिससे जितना बन रहा है वह लिख ही रहा है। यह ठीक ही है कि सबको अपनी बातें कहने का मौका मिल रहा है। 

पीने वाले चाहे जितने बढ़ जाएं
मधुशाला में जाम कहां कम होता है। 
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समकालीन गजलकारों के लट्ठ भांज होहल्ले के बीच अपनी रचना धर्मिता से विशेष पहचान बनाने वाले भाई अभिषेक सिंह का यह पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमे कुल 128 गजलें संग्रहित हैं। संग्रह की सभी ग़ज़लें शोचनीय (सोचनीय नहीं) और अपनी विधा में स्तरीय हैं। विविध विषयों को लेकर कही गई इनकी ग़ज़ले पाठक के अंतर्मन को ऐसा उद्वेलित करती हैं कि वह पन्ना दर पन्ना आगे बढ़ता हुआ जब तक आखिर तक नहीं पहुंच जाता तब तक उसे संतुष्टि नहीं मिलती है। 

उदाहरण के लिए कुछ शेर देखें -

होने दो अफवाहों से बाजार गरम
अफवाहों से नाम कहां कम होता है।
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उलझन के पत्थरों से बनी वीथियों के बीच
ठहरे हुए हैं हम सभी मजबूरियों के बीच।
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इतना तनहा जीवन क्यों है।
जीवन में खालीपन क्यों है।

सूख चुके हैं आंसू सारे
फिर आंखों में सीलन क्यों है।

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थकन से चूर होकर लौटता है नीड में वापस
खुले आकाश के नीचे परिंदा कब ठहरता है।

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गीदड़ प्यास से व्याकुल होकर नदी में आया और पानी पी रहा था। गीदड़ की बेताबी देखकर मछली उसपर हंसी और बोली इस पानी में एस क्या खास है जिसके लिए तुम इतने बेताब हुए जा रहे हो? गीदड़ चुपचाप पानी पीता रहा और मछली हंसती रही। जब उसकी प्यास बुझी तो झपट्टा मारकर मछली को पकड़ा और उसे पानी से बाहर फेक दिया। मछली थोड़ी देर में ही तड़पने लगी। 

गीदड़ ने फिर से उसे अपने मुंह में पकड़ा और नदी में फेंक दिया। मछली की जान में जान आई तो गीदड़ ने कहा मुझे पूरी उम्मीद है कि तुम्हे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा?

गांव से आए हुए आदमी को शहर इसी तरह चुभता है लेकिन देखने वाले को पता नहीं चलता। इसी पीड़ा पर एक शेर -

पीड़ा का स्वर घुट घुट कर मर जाता है
कितना निर्मम शहरों का सन्नाटा है।
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एक और शेर जो मुझे बहुत अच्छा लगा -

उम्र भर जिसकी सिलाई करते रहते हैं सभी
जिंदगी है क्या फकत ख्वाबों की इक पोशाक है
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मोहब्बत में लोग क्या क्या होना चाहते हैं लेकिन अभिषेक सिंह की चाहत कुछ और ही होने की है। 

मोहब्बत में अगर कुछ हो सको तो
कभी मीरा कभी रसखान होना।

समझना चाहते हैं प्यार को जो
वो पहले सीख लें नादान होना।
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नई व्यंजना, नए प्रयोग की दृष्टि से भी अभिषेक सिंह का यह संग्रह सराहनीय है।

ओला न मिल सके तो उबर से निकल चलें
आओ उदासियों के शहर से निकल चलें। 

खतरों की बारिशों का तो मौसम ही तय नहीं
हिम्मत का रेनकोट ले घर से निकल चलें।

मैने तो ओला, उबर और रेनकोट जैसे शब्दों को ग़ज़ल में ढलते हुए पहली बार देखा।
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परदेश जा रहे बेटे के प्रति मां के दिल में उठ रहे दर्द को इस शेर में क्या खूब बयान किया है -

आते आते अपने आंसू हम छुपा लाए मगर
मां की आंखों में समंदर छोड़ आए अंततः
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आओ आओ तुम भी आओ सड़कों पर
आज तिरंगा फिर लहराओ सड़कों पर

वे वहशत के कांटे बोना चाहेंगे
तुम करुणा के फूल उगाओ सड़कों पर।

घनघोर निराशा के दौर में भी एक कवि/शायर ही है जो करुणा के फूल उगाने के सपने देख सकता है। 
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इन ग़ज़लों में घायल हंस को देखकर सय्याद के आंखों की धूर्तता वाली चमक का बयान है तो वहीं पौष की सुबह दूब की नोक पर लटक रही ओस के बूंद की नाजुकी भी है। यह विविध आयामी शायरी का एक बढ़िया संकलन है जिसे पढ़कर मैं तो तृप्त हुआ अब आपकी बारी है अगर अब तक आपने न पढ़ा हो तो?

पुस्तक -- वीथियों के बीच
विधा -- ग़ज़ल

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