समीक्षा

किताब - गाती हुई औरतें
विधा - गद्य काव्य
लेखक - देव नाथ द्विवेदी
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन (जयपुर)
मूल्य - 175 रुपए मात्र 

राजेंद्र राजन की एक कविता है --

मैदान में जैसे ही पहला पहलवान आया
उसकी जयकार शुरू हो गयी
उसी जयकारे को चीरता हुआ दूसरा पहलवान आया
और दोनों परिदृश्य पर छा गये

पहले दोनों ने धींगामुश्ती की कुछ देर
कुछ देर बाद दोनों ने कुछ तय किया

फिर पकड़ लाये वे उस आदमी को जो खेतों की तरफ़ जा रहा था
दोनों ने झुका दिया उसे आगे की ओर
अब वह हो गया था उन दोनों के बीच एक चौपाये की तरह

तब से उस आदमी की पीठ पर कुहनियां गड़ा कर
वे पंजा लड़ा रहे हैं
परिद्रिश्य के एक कोने से
कभी-कभी आती है एक कमज़ोर सी आवाज़
कि उस तीसरे आदमी को बचाया जाये
मगर इस पर जो प्रतिक्रियाएं आती हैं
उनसे पता चलता है कि सबसे मुखर लोग
दोनों बाहुबलियों के प्रशंसक
या समर्थक गुटों में बदल गये हैं। 

गद्य कविताएं लिखना आसान नहीं होता। उसके लिए स्टार्टर चाहिए, एक्सीलेटर चाहिए, स्पीड ब्रेकर चाहिए, सड़क पर लगे अलग -अलग निशानों की मानिंद उसमे आने वाले समय के खतरों का सूक्ष्म संकेत भी छुपा होना चाहिए। कविता वो है जो मन को गुदगुदाए भी सोचने पर मजबूर भी करे नया रास्ता भी दिखाए और पुराने को ढापे भी नहीं। 

लय छंद ताल के चक्कर में पड़कर बहुत सारी भावनाएं होती थी जो शब्दों का आकार नहीं ले पाती थीं इसी कारण गद्य काव्य का जन्म हुआ। लेकिन इसकी आसानी भी इतनी आसान नहीं जो कुछ भी आड़ा तिरछा लिख दो और कविता हो जाए। इसके लिए भावों को मन की भट्टी में तपाना पड़ता है तब वो कविताओं के रूप में कागज पर उतरती हैं। 

भावों की गहनता जब छंद और लय से आगे निकलकर कागज पर उतरती है तब कविता आकार लेती है। 

एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी को बेलता है
न खाता है
वो सिर्फ रोटी से खेलता है। (धूमिल)

गायों का झुंड खेत खाने नहीं आता
वो अपना हक मांगने आता है। (अरुण प्रकाश)

इसी क्रम में एक नायाब कविता संग्रह हाथ लगा 'गाती हुई औरतें  ' जिसके लेखक हैं देवनाथ द्विवेदी। 

हे राम!
आज वो समूचा अहिल्या समाज
तुम्हें मुक्त करता है इस विशेषण से
अहिल्या को फिर तलाश है
एक प्रस्तर खंड की
जहां वह सुरक्षित रह पाए
कपड़ों के बगैर भी। (इसी संग्रह से)

अगर हम विषय वस्तु की बात करें तो केवल आधुनिक विषयवस्तुओं को अपनाने से आधुनिकता नहीं बनती। उसके लिए कई सारा जोड़ तोड़ गुणा भाग करना पड़ता है। इसके लिए कई पुराने मानकों ढहाना पड़ता है। नए मानक गढ़ने पड़ते हैं। कहन का यही नवाचार आधुनिक कविता है। 

एक कविता है -- 'हमारे प्यार का वो पहला दिन' उसकी आखिरी पंक्तियां देखें...

ताकि जीवित रहे स्मृति में
तुम्हारा प्रेमातुर कसाव
टूटी चूड़ी का आधा भाग तुम रख लो
आधा मैं रखती हूं
एक नई चूड़ी के ठीक इसी तरह टूटने तक 
और हमारे दुबारा जुड़ने तक (इसी संग्रह से)

मशहूर आलोचक अशोक कुमार लिखते हैं -- तत्कालीन कवि-लेखकों की कृतियाँ समय के विचार से उसी काल में "आधुनिक" कही जाती थीं । उसी समय का युग पाण्डित्य-प्रदर्शन का युग था । समयानुसार साहित्य-रुचि भी बदलती रहती । आजकल की आधुनिक और अत्याधुनिक काव्य-कविताओं में दुर्बोधता, भाव-पक्ष की जटिलता, रस-न्यूनता आदि सांप्रतिक-रुचि-सम्मत हो गई हैं । युग-रुचि के अनुसार साहित्य की सर्जना चलती रहती है । कवि-लेखक चाहें तो अपनी नवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा से नयी दृष्टिभंगी लेकर एक नये युग का सूत्रपात कर सकते हैं। 

प्रस्तुत संग्रह की कविताएं नए भाव बोध की कविताएं हैं।
हर स्त्री अंजली नहीं बन पाती, क्योंकि 
हर पुरुष शेखर नहीं होता। (इसी संग्रह से)
पाठक शेखर और अंजली को न जानते हुए भी लेखक के भाव से खुद को जोड़ लेता है। 

पर ये कैसी अजीब बात कि
हम नहीं बन सकते कभी
सेमल के नन्हे रोएंदार बीज
कि कहीं भी चले जाएं उड़कर मनमर्जी से
अपने कब्र के सन्नाटे में
खुद ही उतर गए हैं हम
और इंतजार कर रहे हैं चुपचाप
तृप्ति से लबालब
एक गरिमामय मौत का (इसी संग्रह से)

अंधेरे में खड़े खड़े अचानक प्रकाश हो जाए और आंखें चुंधिया जाएं। कविताओं का कर्म यही है कि वह पाठक के मन में तीव्र संवेदनाएं डालकर उसे असहाय छोड़ दे। लेखक का नाम अगर भूल नहीं रहा हूं तो शायद भवानी मिश्र की एक कविता है --

तीन लोग गोली से मरे हैं
पहले ने कहा - हे राम
दूसरे ने कहा - अल्ला हू अकबर
तीसरे ने कहा - जय माओ
पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आई है तीसरा आदमी भूखा था।

कविताएं अगर ऐसी टीस नहीं पैदा करतीं तो उनका रचा जाना व्यर्थ है। प्रस्तुत संग्रह की कई कविताओं को पढ़ते हुए मन सोचने को मजबूर हुआ। 

कुछ मामलों में बड़ा मुश्किल होता है फर्क कर पाना जैसे
बेवकूफी करने और गलती करने में
प्यार करने और प्यार हो जाने में
या फिर
चुनावी नारे और सलवार पायजामे के नाड़े में। (इसी संग्रह से)

खाती पीती, बतियाती गाती
रुकती मिलती, आगे बढ़ती
चढ़ती उतरती, गिरती सम्हलती
जोड़ती गांठती संग्रह करती
खरीदती बेचती, मोलभाव करती
सचमुच की चीटियां हैं हम। (इसी संग्रह से)

गद्य काव्य पसंद करने वालों के लिए एक बढ़िया किताब है जिसे  175 रुपए के किफायती मूल्य पर लेकर पढ़ा जा सकता है। पढ़ना जरूरी इसलिए भी है क्योंकि आने वाली पीढ़ी को मुंह दिखाने के लिए अपने पास कुछ न कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए जिसपर हम गर्व के साथ कुछ कह सकें। क्योंकि धरती से लेकर दिमाग तक सब कुछ तो हमने दूषित कर ही लिया है। 
अब दो हो उपाय शेष हैं
पेड़ लगा सकते हैं
और किताबें पढ़ सकते हैं।

#चित्रगुप्त

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