काम हो जाएगा
काम हो जाएगा…
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वैसे तो इस देश में काले मुर्गे की पीठ पर बैठकर सफेद कबूतर उड़ाने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं है फिर भी इनकी संख्या में अगर कहीं पर कोई कमी नज़र आती है तो उसे पूरा करने के लिए सरकार की ओर से कर्मचारी नियुक्त कर दिए जाते हैं। उसके बाद वो लीप पोतकर समाज का ऐसा ढांचा तैयार करते हैं? जिसके आधार पर चमकीले सरकारी आंकड़े तैयार किये जा सकें।
मास्टरों की नियुक्ति बच्चों को पढ़ाने के लिए की गई थी लेकिन उन्हें पढ़ाना छोड़कर बच्चों की टट्टी का सैम्पल एकत्रित करने, गायों, बकरियों, भेड़ों आदि की गिनती करने, सरकारी दुल्हनें तैयार करने, नेताओं का स्टेज सजाने आदि अनेकों कामों की ऐसी लिस्ट थमा दी जाती है जिसमें उलझकर उनकी पूरी नौकरी कब निकल जाती है इस बात का उन्हें पता ही नहीं चलता है। जिसके कंधों पर देश का भविष्य सुधारने की जिम्मेदारी होती है वे अपने ही बच्चों को नहीं सुधार पाते, फिर सेवानिवृत्ति के दिन जब उनके सम्मान में जलसा आयोजित किया जाता है तब उन्हें याद आता है कि अच्छा तो मैं मास्टर था।
मुनिया ऐसे ही एक सरकारी आँगनवाणी केंद्र की मुख्य अध्यापिका थी। कोई मुझसे पूछता है कि आँगनवाणी केंद्रों से किसका कितना भला हो रहा है तो मैं सीधा सा जवाब देता हूँ कि इससे सिर्फ इनके कर्मचारियों का भला हो रहा है और बाकी इसकी आपूर्ति में लगे लोगों का भी थोड़ा बहुत भला हो ही जाता होगा। साथ ही कुछ दुधारू गायों और भैंसों के मालिकों का भी भला हो जाता है जिनके लिए बच्चों का पोषाहार सस्ते दामों पर उनके जानवरों के लिए उपलब्ध हो जाता है।
एक बार इलाके में सूखा पड़ा तो गांव की सबसे तेज तर्रार मुनिया अपनी अर्जी के साथ बड़े दरबार में जाने के लिए पहुँच गई। वह जल आपूर्ति विभाग विभाग के दफ़्तर में घुसने ही वाली थी कि अर्दली ने उसे रोक लिया।
"ऐसे कहाँ धड़धड़ाते हुए मुँह उठाये चली जा रही हो 'जूते चप्पल जैसा मुँह' लिए फुलौरी की आशा में, जरा रुको तो, यहाँ काम करने का और करवाने का कुछ तौर तरीक़ा है। ये कोई बाबा जी का ढाबा थोड़ी न है जो जब मर्जी चले आये प्रसाद खाया और चले गये। यहाँ कोई क़ाम हो तो सबसे पहले मुझे बताओ, कोई अर्जी वगैरह लाई हो तो उसे पढ़ाओ, उसके बाद तुम अंदर जाने लायक हो या नहीं इस बारे में फैसला होगा।"
"फटे मुँह तेरे! सरकार ने तुम्हें जिस काम के लिए रक्खा है न वही करो न? फालतू में माथा क्यों खराब क्यों खराब कर रहे?"
मुनिया ने बात ऐसे किया जैसे वह सरकारी हरामखोरी के बारे में कुछ भी जानती ही न हो?
"मुनिया की फटकार सुनकर अर्दली थोड़ा सहमा फिर थोड़ा रुककर बोला, "अरे मोरी अम्मा जब साहब का आदेश ही ऐसा है तब आप ही बताओ कि मैं क्या करूँ? मेरे घर मे भी बीवी बच्चे हैं उनका पेट पालना है भाई बंधु हैं जिनके मान सम्मान का भी ध्यान रखना है। जो साहब जी के आदेशों के पालन बगैर तो संभव नहीं है? अगर आपके थोड़ा रुक जाने से मेरी नौकरी बच रही है तो रुक जाइये न आपका काम शर्तिया हो जाएगा उसकी चिंता आप बिलकुल न करें।"
मुनिया ने अर्दली की ओर देखा जो उसे ऐसे देख रहा था जैसे कोई बड़ा सा बिल्ला अपने शिकार को देख रहा हो?
मुनिया ने बिना कुछ बोले अपनी अर्जी उसके हाथों में थमा दी। अर्दली ने अपनी आंखें फाड़ कर उस कागज़ को थोड़ी देर घूरा फिर सब कुछ समझ लिया हो जैसा मुँह बनाकर मुनिया से बोला।
"आखिर लिखा क्या है इसमें?"
"अर्जी हाथ में ही है उसे पढ़ क्यों नहीं लेते?" मुनिया ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
"अरे बिटिया आज मैं अपना चश्मा घर भूल आया हूँ और बिना चश्मे के मुझे कुछ दिखाई नहीं देता इसलिए तुम्हीं बता दो?"
"सोचेंगे कि सुला लें अपनी खटिया, लेकिन मुँह से बोलेंगे बिटिया, ये कमीनेपन के साथ पैदा नहीं हुए थे बल्कि यहाँ नौकरी करते-करते कमीने हो गये हैं। ये सीधे से किसी को नहीं बोलते कि पढ़ना नहीं आता है। इन्हें मैं पिछले तीस सालों से जानता हूँ और इन्हें तब से ही न दिखने की समस्या है। इनकी ये समस्या और अन्य किसी काम में नहीं है बस जब कुछ पढ़ना होता है तभी इनको दिखना बंद हो जाता है।" पास खड़ा व्यक्ति जो संभवतः उस अर्दली का मित्र था वह बोला और अर्दली के गुस्सा होने का इंतज़ार किये बग़ैर लगभग भागते हुए वह वहाँ से चला गया।
अर्दली ने खिसियाई हुई शक्ल बनाकर तीन-चार गालियां उस भागते हुए दोस्त की ओर रशीद की फिर मुनिया से बोला-
"साहब बहुत अच्छे हैं काम कुछ भी होगा हो ही जाएगा बस तुम ये बताओ कि समस्या क्या है?"
"धान की फसल लगाई थी उसी में पानी की समस्या है। सरकारी नहर का पानी मिल जाता तो इस समस्या से निजात मिल जाती।"
"यही तो बेवकूफी है तुम लोगों की, मक्का लगाना था, बाजरा लगाना था अरहर लगाना था वो कम पानी में भी हो जाता। तुमको सरकार ने धान लगाने के लिए बोला था क्या जो समस्या लेकर आ गयीं"
"पिछले साल वही सब लगाया था तब बारिष अधिक हो गई थी और सब बर्बाद हो गया था।"
"छुट्टे मवेशियों और नीलगायों की समस्या भी तो तुम्हारे इलाके में खूब है जो धान के लिए बहुत घातक है। फिर भी तुमने धान लगा दिया लेकिन तुम तो रानी लक्ष्मीबाई हो जो नीलगायों और छुट्टे जानवरों से नहीं डरीं?"
रानी लक्ष्मी बाई होना तो बड़े गर्व की बात है। जब धान बो दिया तो बो दिया। आप नहर का पानी दिलवा सकते या नहीं बस इतना बता दो और अगर नहीं भी दिलवा सकते तब भी कोई बात नहीं है लेकिन कम से कम बड़े साहब से तो मिलवा दो?"
मुनिया को गुर्राहट के साथ खड़ा देख अर्दली को जब उसे टालने के बहाना न सूझा तब वह उसे साथ लेकर दफ़्तर के अंदर घुस गया। अंदर का नजारा बड़ा ही अद्भुद था। अंदर लकड़ी की दड़बेनुमा कई आकृतियां बनी हुई थीं जिसके अंदर आदमीनुमा कई चेहरे समाए हुए थे। उनकी उंगलियां लगातार हिल रही थीं और बीच-बीच में उनका सिर भी कभी कभार हिल जाया करता था। उन्हीं में से एक थुलथुल आकृति के सामने अर्दली ने मुनिया को खड़ा किया और उसके कान में फुसफुसाया..।
"ये वो साहब हैं जो अगर चाहेंगे तो तुम्हारा काम पक्का हो जाएगा। इधर ही खड़ी रहना और जब ये कुछ पूछे तो सब साफ-साफ बता देना।" इतना कहकर अर्दली वहाँ से चला गया।
मुनिया ने थोड़ी देर उस महान आत्मा के दीदार का आनंद लिया उसके बाद वह उनके बोलने का इंतज़ार करने लगी। मुनिया ने दुनिया के कई अजूबों के बारे में सुन रक्खा था लेकिन कुर्सी पर बैठा हुआ गैंडा वह पहली बार देख रही थी। उसे दुःख हुआ कि इस अद्भुद दृश्य को दिखाने के लिए वह अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाई। वह खड़ी सोच ही रही थी कि सामने वाली आकृति में रत्तीभर विचलन हुआ तो उसने अपनी नजरें वहीं गड़ा दी। काफी मसक्कत के बाद मुनिया के समझ में आया कि वह उसके हाथ में पकड़ी हुई अर्जी मांग रहा है।
मुनिया ने फटाफट अपनी अर्जी उसे थमा दी। जिसको उसने पहले चश्मा लगाकर पढ़ा फिर उतारकर पढ़ा फिर चश्मा लगाकर उसके ऊपर से देखते हुए पढ़ा फिर पढ़कर जब उसे तसल्ली हो गई तो कागज को मेज पर रखकर तीन-चार प्रकार का मुंह बनाया और बड़ी मुश्किल से कुर्सी को अपने से अलग करते हुए उठा और पीछे मुड़कर दीवारों के बीच अंतर्ध्यान हो गया।
कुछ देर बाद वह फिर प्रकट हुआ और हिलते हुए कुर्सी में समा गया। इस बार हंसते हुए उसके काले दाँत दृश्यमान हो रहे थे।
"तुम्हारी अर्जी में दम है तुम्हारा काम पक्का हो जाएगा। बस एक काम और करो कि ये हाथ का लिखा हुआ यहाँ नहीं चलेगा। इसलिए बाहर जाओ! और इसे टाइप करवाकर ले आओ। बस एक बात का ध्यान रखना कि उसमें व्याकरणिक या मात्रिक गलतियां नहीं होनी चाहिए वरना बड़े साहब नाराज हो जाएंगे। वैसे भी वो हिंदी भाषाविद हैं। नुक्ता से लेकर अल्प-विराम, अर्ध-विराम, पूर्ण विराम, विस्मयादिबोधक चिन्ह आदि का बहुत बारीकी से निरीक्षण करते हैं।इसमें कोई गलती हुई तो तुम्हारी अर्जी सीधे कूड़ेदान में ही जाएगी सोच लेना…।"
मुनिया आधा समझी और बाकी का उसकी शक्ल के हिसाब से अनुमान लगाया कि यही कुछ बोला होगा। वह बाहर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि वो फिर बोले- "बाहर निकलते ही पाठक जी की दुकान है वो अच्छे से टाइप कर देंगे। दूसरे के पास मत चली जाना वरना साहब के बारे में तो मैंने तुम्हें बता ही दिया है।"
मुनिया पाठक जी की दुकान पर गई वहाँ एक अर्जी टाइप करने का शुल्क सौ रुपये था। मुनिया ने अपना बटुआ टटोला तो उसमें सौ से कुछ अधिक रुपये उसकी गिनती में आये। मुनिया ने अनुमान लगाया कि वो इस शुल्क की भरपाई उसके आंगनबाड़ी केंद्र में आये बच्चों के पोषाहार की बोरी किसी तबेला मालिक को उसकी भैसों के लिए बेचकर कर लेगी इसलिए उसने खुशी-खुशी सौ रुपये पाठक जी को पकड़ाए और अपना मसौदा टाइप करवा लिया।
मुनिया कागज टाइप करवाकर ले आई और थुलथुल देह वाले साहब को दिखाया तो उन्होंने उसे बाहर बैठकर इंतज़ार करने को कहा।
पहले वाले से थोड़ा बड़े वाले साहब जिससे उसे अब मिलना था, वो दफ्तर में ही थे। ट्रे में भर-भर कर उनके खाने-पीने का सामान बाहर से अंदर जा रहा था और वो फोन पर जोर-जोर से ठट्ठा मारकर बातें कर रहे थे। उनके दरवाजे के बाहर उन्हें व्यस्त दिखाने वाली लाल बत्ती मुनिया के दिल में लगी आग की तरह जल रही थी। कुछ देर बाद वो बत्ती हरी हुई तब वह थोड़े छोटे लेकिन अधिक मोटे वाले साहब के साथ इस पतले किंतु पहले वाले से थोड़ा बड़े वाले साहब के केबिन में दाखिल हुई।
इस वाले साहब ने भी उसकी अर्जी देखी और तीन चार प्रकार का मुँह बनाते हुए बोले, "आपकी अर्जी में बाकी तो सब ठीक है बस एक काम करो ये पेपर बड़े घटिया किस्म का है। इसलिए जाओ और वर्मा जी के यहां से प्रिंट करवाकर ले आओ इस पूरे बाजार में बस एक वह ही हैं जो इम्पोर्टेड पेपर रखते हैं। उनके पेपर एकदम कड़क और दूध जैसे झक सफ़ेद होते हैं जिसे देखते ही सामने वाले की आंखें चौंधिया जाती हैं।"
मुनिया बेचारी वर्मा जी की दुकान ढूढ़ते हुए वहां तक पहुँची यहाँ एक पेपर प्रिंट करने का चार्ज दो सौ रुपये था। उस बेचारी के पास अब किराए के पैसों को छोड़कर कुछ बचा ही न था। वह उस दिन चुपचाप घर आ गई और पैसों का बंदोबस्त करके दूसरे दिन फिर गई। पेपर वर्मा जी से प्रिंट करवाया और जिस साहब से मिलना था उस साहब के दफ्तर के बाहर लाइन लगाकर खड़ी हो गई।
जैसे तैसे उसका मिलने का नंबर आया। ये वाले साहब थोड़ा शायर किस्म के आदमी मालूम पड़ते थे क्योंकि हाथ में अर्जी आते ही वो उसे हाथ फहराते हुए पढ़ने लगे। उनके पढ़ने का अंदाज कुछ इस प्रकार था कि जैसे वह सरकारी दफ्तर में न होकर मिर्जा गालिब की कब्र पर बैठे मर्सिया पढ़ रहे हों।
इस वाले साहब ने भी अर्जी पढ़ लेने के बाद जैसे ही 'लेकिन' लगाया मुनिया का कलेजा धक्क करके रह गया, कि न जाने अब कौन सा बहाना लगेगा? थोड़ा चूं चां करने के बाद साहब सीधे मुद्दे पर आए और बोले-
"काम तो तुम्हारा हो ही जायेगा पर एक काम तुम्हें और करना पड़ेगा। तुमने अपनी अर्जी को इतने अच्छे पेपर पर इतना अच्छा टाइप करवा रखा है अब इसके लिए एक फाइल का बंदोबस्त तो करना ही पड़ेगा। इसे बड़े वाले साहब के पास जो जाना है। अब ऐसे खाली पेपर तो उनके पास भेजा नहीं जा सकता देखो फाइल तो चाहिए ही इसके लिए बाहर जाओ और मल्होत्रा जी की स्टेशनरी की दुकान है वहाँ से एक बढ़िया सी फाइल लेकर अपनी अर्जी को उसी में नत्थी कराकर ले आओ बस समझो कि तुम्हारा काम हो गया।
मुनिया ने बाहर आकर फाइल का दाम पता किया तो वह पांच सौ रुपये की थी। मुनिया के पास इतने पैसे थे नहीं इसलिए वह फिर वापस आ गई।
उसी रात इंद्रदेव की मेहरबानी से खेत-खलिहान सब जलमग्न हो गया। बहुत समय बाद रात का मौसम सुहावना हुआ था। वह सुबह देर तक सोती रही फिर जब वह उठी तो देखा उसका छोटा बेटा उस अर्जी वाले कागज की नाव बनाकर आंगन में भरे पानी पर चला रहा था।
#चित्रगुप्त
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