गली गली के नारद

गली-गली के नारद
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सुबह सोकर उठा था और अंगड़ाई लेते हुए आँख मिलमिलाने के वास्ते अपनी हथेलियों को तैयार कर ही रहा था कि वे आ गये। 

"सुना है तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई?" उन्होंने आते ही पूछा। 

मैंने हां में सिर हिलाया ही था कि उन्होंने दूसरा सवाल दाग दिया। 

"कितना घूस दिए थे?" 

ये वाला सवाल असहज करने वाला था। इस देश का आम आदमी गलत कर तो सकता है लेकिन गलत कहना उसे कतई गवारा नहीं। सबूत के तौर पर आप उम्र भर ब्रम्हचर्य पर भाषण देने वाले बाबाओं को ले सकते हैं जिनका बुढापा अनर्गल क्रियाओं के जाल में जेलों में कट रहा है।

 लेकिन वे आये ही इसलिए थे बंदे को सरकारी मिली है फिर भी उनके जीते जी कोई खुश रहे ये कैसे हो सकता है। मैं अगर उनके इस सवाल से असहज न भी होता तो वे दूसरा पूछ लेते, तीसरा पूछ लेते, चौथा पूछ लेते...। वैसे उनका उत्तर से कोई लेना होता भी नहीं है लेकिन वे सवाल पर सवाल पूछते रहते हैं और चेहरे का तापमान मापते रहते हैं। जब तक सामने वाला उनके सवालों से पूरी तरह परेशान होकर लाल पीला न हो जाए वे मानेंगे नहीं।

यहां तरह-तरह के लोग हैं। कुछ लाल, कुछ पीले, कुछ नीले कुछ हरे तो कुछ केसरिया... उनकी संख्या अपने-अपने लाभ-हानि के हिसाब से घटती बढ़ती जरूर रहती है। फिर भी मिलेंगे सभी...। कभी संख्या में कम तो कभी ज्यादा।

जब भाई ने दसवीं पास किया तो गाँव के एक मास्टर जो दुर्भाग्य से पड़ोसी भी हैं, भागते हुए आये और पूछने लगे।

"सुना है भैवा पास हो गया?"

मैंने हाँ कहा तो वे कहने लगे "सेकंड डिवीजन हुआ होगा?"

"नहीं फर्स्ट आया है।" मेरा इतना कहना था कि वे मुँह लटकाकर चले गये। उसके बाद मैं टीवी देखने लगा तो वहाँ खबर चल रही थी 'पुलिस कस्टडी में युवक की मौत...' थोड़ी देर में युवक के बाप का इन्टरव्यू आने लगा। पुत्रशोक में ब्यथित बाप का चेहरा भी मेरे भाई के फर्स्ट पास होने से दुःखी मास्टर साहब के चेहरे से अधिक चमकदार लग रहा था।

कभी-कभी लगता है कि जैसे हम दुःखी होने के लिए ही पैदा हुए हों और हमारे आस-पास वाले हमको दुःखी करने के लिए। गरीबों की गरीबी पर प्रलाप करते हुए मैंने कई बार अनुभव किया है कि उसके बाद जिस प्रकार की आत्मसंतुष्टि का भाव चेहरे पर हावी हो जाता है वह शायद बुद्धों को ही सुलभ होता हो?

दुःखी होने के लिए हमारे पास तरह तरह की भ्रांतियां हैं। जैसे जितना भरोसा किसी मुसलमान का कुरान में है। सिख का गुरुग्रंथ साहिब में है। ईसाई का बाइबिल में है। हिंदुओं का गीता या रामायण में है। उससे कहीं ज्यादा भारत के आम आदमी का भरोसा इस बात में है कि यहां बिना घूस दिए कुछ नहीं हो सकता। 

मेरे गाँव में एक पटवारी आये थे। वे काफी ईमानदार आदमी थे। माधौ के पिता जी गुजर गए थे तो वे वरासत कराने के लिए उनके पास गए। कागज पत्र थमाकर वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये और खर्चा पानी पूछने लगे। पटवारी जी ने उन्हें लाख समझाया लेकिन वे इस बात को मानने के लिए किसी भी तरह तैयार न हुए कि उनका ये काम बिना घूस दिए भी हो सकता है। 

पटवारी जी ने उनका काम भी कर दिया लेकिन माधौ थे कि माने नहीं और अगली तहसील दिवस पर जाकर जिला कलट्टर के सामने हाथ जोड़कर अपना काम न होने की शिकायत लेकर खड़े हो गये। बड़ी मुश्किल से उस दिन कलट्टर साहब ने उन्हें समझाया कि उनका काम हो गया है और अगर आगे से उसने किसी को घूस देने की बात की तो उसे जेल भी हो सकती है। 

इस बात पर माधौ को बड़ा आश्चर्य हुआ कि घूस देना भी कोई अपराध की श्रेणी में आ सकता है। अब तक तो वह यही मानकर चल रहे थे कि घूस लेना तो अपराध है लेकिन घूस देना किसी अश्वमेघ यज्ञ की श्रेणी में ही आता होगा।

पहले आदमी अपनी हर खुशी या गमी के लिए भगवान को जिम्मेदार मानता था। फिर विज्ञान ने तरक्की की और आदमी का भरोसा भगवान से उठने लगा। लेकिन अपनी गलतियों की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई एक तो होना ही चाहिए था। उसके लिए लोकतंत्र और सरकार की अवधारणा का विकास किया गया। अब जहां भी लोकतांत्रिक सरकारें हैं वहां ये सहूलियत है कि वहां की जनता अपनी हर अकर्मण्यता, घटिया सोच और नाकारापने के लिए सरकार को दोषी ठहराकर चैन की नींद सो सके।

सरकार बुराई सुनने के लिए होती है और विपक्ष बुराई करने के लिए। सरकारी कर्मचारी अपने बाल बच्चे पालने के लिए होते हैं और प्राइवेट कर्मचारी काम करके कारपोरेट की तिजोरी भरने के लिए। किसान फांसी खाने के लिए होता है तो वहीं मजदूर चूहे मार की दवाई खाकर अपनी जान देने के लिए। लोकतंत्र में हर आदमी का काम बिल्कुल बंटा हुआ है जिसे न करने के लिए वह पूरी तरह से स्वतंत्र है।

आजादी के इतने साल बाद मुझे एक बात समझ आई है कि देश का विभाजन क्यों हुआ था। इस बात का पता चलते ही मैं कांग्रेसियों की दूरदर्शिता का कायल हो गया। 

मान लो अगर देश का बंटवारा न हुआ होता और पाकिस्तान न बना होता तो हमारी सरकारें अपनी खामियों के लिए किसे दोषी ठहरातीं? देश में कहीं कोई आतंकी हमला हुआ पाकिस्तान का नाम धर दिया। किसी कंपनी का कम्प्यूटर हैक हुआ पाकिस्तान का नाम धर दिया। किसी की लड़की भागी पाकिस्तान का नाम धर दिया। कोई बीमारी आई पाकिस्तान का नाम धर दिया। जैसे पाकिस्तान न हुआ सार्वभौमिक बीमारी हो गया जो हर सरकारें अपनी-अपनी असफलताओं के लिए इसी के नाम की चुगली करना शुरू कर देती हैं।

गलियां गरीब गाँव की हों, चमकदार शहर की हो या देश के संसद की नारद हर जगह विराजमान हैं। जो बात के अर्थ का अनर्थ करके अपने स्वार्थ का सिक्का चलाने के लिए नारायण-नारायण कहते हुए घूम रहे हैं। रामनामी अंगरखे में लिपटा हुआ ब्यक्ति भक्त विभीषण है या दैत्य कालनेमि इसका निर्णय करने के लिए जनता को हनुमान जी वाले बुद्धि और विवेक की आवश्यकता है।

#चित्रगुप्त 



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