समीक्षा

छोटी किंतु असाधारण कहानियों का संग्रह
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(जो कि लेखक की लेखकीय गुटबाजियों में शामिल न होने के कारण आम पाठक तक पहुंची ही नहीं है।)

जैसा कि लेखक ने स्वयं ही कहा है- " यह कहानियाँ रेगिस्तान के उन दरख़्तों की तरह हैं जो बिना खाद -पानी और देखरेख के ख़ुद-ब-ख़ुद उग आते हैं और दुनिया को अपने अस्तित्व से रूबरू करवाने के साथ-साथ विकट धूप में किसी थके हारे मुसाफ़िर को अपनी छाँव से कुछ पल को ही सही सुकून का अहसास दिलाते हैं। ऐसे में हमें पूरी उम्मीद है कि इस संग्रह की कहानियाँ आपके मर्म को ज़रूर छुएंगई

सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक को तीर
देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर

ये दोहा लिखा तो बिहारी सतसई के लिए गया था, लेकिन ये क्यों लिखा गया होगा इसका अहसास 'मंटो कहाँ है' को पढ़ते हुए ही हुआ। इसका कारण शायद यह हो कि बचपन से ही बिहारी को इतना पढ़ा और सुना कि समझदारी आते आते उसकी रोचकता जाती रही...

बेहतरीन कथ्य और शिल्प से सुसज्जित यह पुस्तक कुल 70 छोटी कहानियों का संग्रह है। जिन्हें पढ़कर आप रो सकते हैं, हँस सकते हैं, खीझ से भर सकते हैं, या कुछ भी हो सकते हैं पर बिना उद्वेलित हुए नहीं रह सकते...

पाठक के मर्म को झकझोरने के लिए बेताब ये कहानियां कहानी के शिल्प में लघुकथाओं की पृष्ठभूमि पर लिखी गई हैं। जिन्हें पढ़कर आपको लघुकथा और कहानी दोनों का मज़ा आने वाला है।

कहानियों में सचबयानी तो है लेकिन अश्लीलता नहीं है ( किसी को लग भी सकती है?) भाषा भी बिल्कुल सपाट और आम पाठक को समझ में आने वाली है।

अंत में एक बात जो कि मैं दावे से कह सकता हूँ कि इसमें से कोई भी कहानी निरुद्देश्य नहीं लिखी गई है।

किताब- 'मंटो कहाँ है?'
लेखक- नज़्म सुभाष
प्रकाशन- मांड्रेक पब्लिकेशन

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