नशा मुक्ति
नशामुक्ति
*********
सफर लंबा हो और दिन भी ढलने वाला हो ऊपर से मजबूरी ऐसी की चलना भी अनिवार्य हो ऐसी हालत में खड़े मुसाफिर की सी दशा लिए खड़ी रेवती जैसे धरती फटने के इंतजार में हो कि वो उसी में समा जाये। पर हर किसी के किस्मत में सीता हो जाना कहाँ लिखा होता है?
"कब से मना कर रहे थे कि मत पियो मत पियो पर मानें तब न....? भर गया न मन अब पीना आराम से ऊपर जाकर... कम से कम इन छोटे छोटे बच्चों और बीवी के बारे में तो सोचना था।" बाहर ओसारे में बैठा बूढ़ा ससुर भी सुबह से ही बड़बड़ कर रहा था सामने सरजू चुपचाप चारपाई पर लेटा था।
डॉक्टर ने अस्पताल से यह कहकर छुट्टी कर दी थी कि ले जाओ सेवा पानी करो अब फालतू इलाज कराने और पैसा फूंकने का कोई मतलब नहीं है। अब या तो बड़े अस्पताल ले जाकर इनकी किडनी बदली कराओ या घर ले जाओ। इनका इलाज हो पाना अब संभव नहीं है।
उसकी दोनों किडनियां काम करना लगभग बंद कर चुकी थीं। बड़े अस्पताल तक पहुंच पाने की उनकी हैसियत न थी। मजबूरी में आखिरी विकल्प घर ले जाना ही बचा था।
बूढ़े बाप का या उसकी बीवी का वश चलता तो वह खुद को भी बेच देते पर सरजू का इलाज कराते लेकिन गरीब की चमड़ी भी इतनी कीमती तो होती नहीं जिसे लाखों में बेचा जा सके।
"अरे चुप करो न बाबू जी जो दो चार दिन जीना है वो तो सुकून से जी लेने दो जो किया उसकी तो सजा भुगत ही रहा हूँ न!" सरजू रुंधे गले से बोला तो बाप की घिग्घी बंध गई। वह भी रोता हुआ बाहर चला गया।
सरजू ने बड़ी दयनीय नजरों से रेवती को देखा तो उसने झुककर उसे अपनी बाहों में भर लिया और चूमने लगी। उसके आंसुओं की धार बरसाती नाले की तरह पूरे उफान पर थी। थोड़ी देर तक इसी तरह प्यार और दुलार के बाद रेवती सिरहाने बैठ गई। सरजू कुछ बोलना चाहता था पर बोलते बोलते रुक गया। रेवती ने फिर से उसके गालों को चूम लिया और हाथों से बालों को सहलाती हुए बोली
"क्या है बोलो न?"
"गला सूखा जा रहा है रेवती, अब मैं बचूंगा नहीं ये तो निश्चित है पर सुकून से मर सकूं इसके लिए कहीं से एक पौवे का जुगाड़ करवा दो।"
सरजू ने अपने दोनों हाथ रेवती के हाथों को पकड़कर जोड़ लिये। लेकिन पीने के नाम पर जिस रेवती के तन- बदन में आग लग जाती थी आज शांत चित्त बैठी थी और उसकी आंखें लगातार बह रही थीं।
देखने आने वालों का भी तांता लगा हुआ था। एक जाता तो दूसरा आ जाता। गांव का आदमी बाकी कुछ कमाये न कमाये पर उम्र भर रिश्ते तो कमाता ही है। देखने आने वालों में गांव वाले रिश्तेदार फिर उनके भी रिश्तेदार...
दोपहर के बाद का समय हो चला था। रेवती बाजार की ओर चल पड़ी। ससुर ने पूछा तो उसने आटा खत्म होने का बहाना बना दिया।
रेवती जो गेंहू पिसवाने ले गई थी उसी में से उसने आधा बेच दिया और रुपये लेकर आँचल के कोने में बांध लिया।
वह पहले नमकीन लेना चाहती थी पर पौवा कितने का मिलेगा उसे कोई आइडिया न था इसलिए उसने पहले ठेके पर जाना ही उचित समझा। कोई जान पहचान वाला न मिले इसलिए उसने बाजार के दूसरी तरफ पड़ने वाले ठेके को चुना।
दोपहर के बाद का समय था ठेका पूरी तरह सुनसान था। उसने खिड़की पर जाकर आवाज दिया तो अंधेरे में फटी हुई दो आंखें उसे घूरती हुई नजर आईं। सामने वाले का चेहरा प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह लटक रहा था पर मुंह में भरे गुटखे को बचाने के चक्कर में वह कुछ बोल न सका।
रेवती को अपने काम से मतलब था। ''एक पौवा देना" छोटी शीशी तुरंत हाजिर हो गई।
"कितने का हुआ?"
"पचास रुपये।"
रेवती ने रुपये दिये और आँचल के भीतर शीशी को छुपा लिया और इधर उधर देखते हुए झपट कर मुख्य सड़क पर आ गई। बचे हुए पैसों से उसने थोड़ी नमकीन और पकौड़ियां भी खरीदीं। वापस आटा मिल पर आकर उसने आटा उठाया और घर की ओर चल पड़ी।
रेवती जब घर पहुंची बच्चे इधर उधर खेल रहे थे। ससुर गाय भैंसों के इंतजाम में लगे थे। उसके पास मौका यही मौका था उसने लाई हुई शीशी दाल के मटके में छुपा दी। और थोड़ी सी नमकीन बच्चों को देकर घर के काम में लग गई।
शाम का खाना ससुर को खिलाने के बाद उसने बच्चों को भी खिलाया और सुला दिया उसके बाद वो रोज की तरह सरजू के पास गई।
सरजू मुरझाई आंखों से आसमान को देख रहा था। रेवती उसके पास बच्चों सा चिहुंक उठी।
"कुछ खाओगे?" रेवती ने पूछा
"बिल्कुल मन नहीं हो रहा है।" सरजू ने उत्तर दिया।
"आज तो मैं तुम्हारी दवाई भी लाई हूँ। अब तो खाओगे ही..." इतना कहकर रेवती भीतर गई और दारू की शीशी ले आई। उसके दूसरे हाथ में नमकीन और पकौड़ी की थैली भी थी।
सरजू उठकर बैठ गया था। वह एकटक रेवती को देख रहा था। रेवती ने दारू को गिलास में डाल दिया।
"जीना मरना तो ऊपर वाले का विधान है सरजू! जो लिखा होगा वो तो होगा ही मन को मारकर जीने से बेहतर है। खुशी खुशी मौत ही आ जाये।" रेवती रुंधे गले से बोलती जा रही थी। सरजू ने दारू से भरे गिलास को हाथ में लिया और दूर फेंक दिया। चांदनी रात धीरे धीरे अपने शबाब की ओर बढ़ रही थी। सरजू और रेवती दोनों लिपटकर रो रहे थे।
#चित्रगुप्त
Comments
Post a Comment