खिसियानी सरकार
"अगर खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे तो खिसियानी सरकार क्या करे ?" मदारी ने प्रश्न किया।
"सरकार मतदाता को खुश करने के लिए जो न करे वही थोड़ा है उस्ताद.....! 1962 का जंग भारत हार चुका था और तत्कालीन सरकार के पास अपनी इज्जत बचाने का अब बस एक ही रास्ता बचा था कि वो पीढ़ियों से भारत में रह रहे चीनी मूल के उन लोगों को जो अब सिर्फ नाम के ही चीनी रह गये थे और अब सिर्फ भारतीय भाषा ही बोलते थे उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाय।
...और सरकार ने वही किया भी। स्पेशल ट्रेन चलाई गई। जिसपर मोटे मोटे अक्षरों में बाकायदा 'एनमी ट्रेन' लिखवाया गया और इस बात का प्रचार भी हो सके इसलिए सरकार समर्थक कार्यकर्ताओं द्वारा जूते चप्पल गोबर कीचड़ आदि से हमला करवाने के लिए ट्रेन को प्रत्येक स्टेशन पर बारी बारी से रोका गया। अन्त में तीन से चार दिन तक मानवता का नंगा नाच करवाकर ट्रेन राजस्थान पहुंची और इन लोगों को देवली जेल में डाल दिया गया। जिस जेल का इस्तेमाल अंग्रेज भी राजनीतिक बंदियों को रखने के लिए करते थे।
चीनी मूल के इन भारतीय नागरिकों के साथ इस दुर्ब्यवहार का एक मात्र कारण सिर्फ ये था कि जनता के बीच सरकार की गिरती साख को किसी भी तरह बचाया जा सके। चीन से बुरी तरह हारने की सरकारी सजा अब उन नागरिकों को मिल रही थी जो अब सिर्फ दिखने में ही चीन जैसे थे बाकी उनका सबकुछ भारतीय हो चुका था।
इस घटना का एक और मजेदार पक्ष ये कि सरकार उस समय तो इनको पकड़कर वीर बहादुर बन गई लेकिन उसके बाद इन्हें भुला दिया गया। कोई मुकदमा नहीं कोई सुनवाई नहीं। उन लोगों की जिंदगी वह रात थी जिसका सूरज कब निकलेगा किसी को कुछ पता ही नहीं था। यहाँ तक कि सरकार को खुद भी याद नहीं था कि उन्होंने कुछ ऐसे लोगों को बंदी बना रखा है।
लोग पांच से छह सालों तक जेल में रहे। कुछ पत्रकारों ने इनपर लिखना शुरू किया। तब जाकर सरकार को याद आया कि जिन्हें वो जेलों में डालकर भूल गये हैं दरअसल वो अब तक जिंदा ही हैं।
फिर धीरे धीरे मामले की लीपापोती शुरू हुई। लोगों की राय ली गई तो कुछ ने चीन जाने का फैसला किया, कुछ कनाडा चले गये और कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने भारत ही रहने का फैसला भी किया।"
"लेकिन जमूरे ऐसा करना तो घनघोर अत्याचार था फिर भी किसी ने इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई?"
"अगर बहाना बड़ा हो न उस्ताद? तो अत्याचार भी राष्ट्रभक्ति की श्रेणी में आ जाता है।"
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