अकर्मण्यता
"हम कोरोना जाँच के लिए आये हैं भैया किसी को सर्दी खांसी जुकाम तो नहीं है न आपके घर में?" आगंतुक चार महिलाओं में से एक ने मुझसे सवाल किया।
"आप लोग अस्पताल से आई हैं क्या?" मैंने सबसे तेज़ चैनल के न्यूज़ एंकर की तरह सरकार के काम की पड़ताल करने की कोशिश की।
"नहीं भैया मैं आंगनबाड़ी वाली हूँ।"
"अरे भाई आंगनबाड़ी वालियाँ कब से मेडिकल जांच करने लगीं?" मैंने ये बात साथ बैठे एक अन्य की तरफ इशारे से पूछने की कोशिश की लेकिन वो तो अब तक जा चुका था। बगल वाली सीट खाली हो जाने के दुःख में मैंने सामने वाली से ही प्रश्न किया। "अच्छा ये आपके साथ में और कौन-कौन है?"
"एक ये तो अपने गांव की ही आशा बहू हैं, ये वाली आंगनबाड़ी सहायिका और ये जो तीसरी हैं ये ए एन एम मैडम की तरफ से हैं।" उसने हाथ के इशारे से अपनी बात बता दी।
"ए एन एम मैडम की तरफ से हैं का क्या मतलब?"
"अस्सी हजार रुपये महीना तनख़्वाह है भैया उनकी वो हमारे जैसे गली गली घूमने क्यों आएंगी? ये तो अपने ही गांव की दाई हैं। इनको तो ऐसे ही गिनती पूरा करने के लिए अपनी जगह पर हमारे साथ में भेज दिया।"
"अच्छा आपकी तनख़्वाह कितनी है?" मेरी आँखें अब टीवी के प्राइम टाइम शो में बैठे किसी बुद्धिजीवी की तरह चौड़ी हो चुकी थीं।
"4500 रुपये महीने मिलते हैं भैया..."
"और आपकी सहायिका और आशा बहू को?"
"इन्हें भी ढाई तीन हजार जैसे मिल ही जाते हैं।"
"और इनको?" मैंने दाई की ओर इशारा किया।
"मेरा क्या है भैया दो सौ तीन सौ जो भी दे दें, फिर भी ये मनरेगा में मजदूरी में करने से तो बढ़िया ही है।" मजदूरनी ने आंगनबाड़ी के बोलने से पहले ही शांत भाव से उत्तर दे दिया।"
ये सुनकर मेरा मन बहुत विचलित हुआ। आखिर इतनी मोटी तनख़्वाह लेकर भी कोई डॉक्टर वार्डब्वाय ए एन एम ऐसी जांच प्रक्रियाओं में सहभाग क्यों नहीं करते ? ए एन एम का अपनी जगह एक अनपढ़ दाई को भेज देना कहाँ तक उचित है?
इस घटना से आहत होकर मैंने जिला कलेक्टर, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के नाम ख़त लिखा और मैं उन चिट्ठियों को पोस्ट करने जा ही रहा था कि माँ की आवाज कानों में गूंजी।
"अरे तू खुद भी तो पिछले दस सालों से सफाई कर्मचारी के पद पर तैनात है। तू भी तो कभी काम करने नहीं जाता, और कहीं कोई काम पड़ भी जाय तो अपनी जगह किसी जमादार को सौ पचास देकर भेज देता है। अगर किसी ने तेरे ख़िलाफ़ भी शिकायत कर दिया तो क्या होगा? ये भी तो सोंच? दूसरे को गंधइला बोलने से पहले अपना पिछवाड़ा भी तो देख ले।"
माँ की बातों ने मुझपर फटे हुए बम की तरह असर किया और मैंने तुरंत ही उन चिट्ठियों को मरोड़कर कूड़े में डाल दिया। थोड़ी देर बाद मैं किसी अन्य राष्ट्रीय समस्या पर अपना दुःख जताने के लिए तैयार हो गया था।
मदारी की उपरोक्त बातें सुनकर अब तक चुप बैठे जमूरे ने अपना मुँह खोला- "बाकी सब तो ठीक है उस्ताद पर कम से कम आपकी माँ ने तो आपके बारे में ऐसा नहीं बोलना चाहिए था।"
"वो तो बोलेगी ही सौतेली माँ है।"
अब इससे आगे की चर्चा का विषय अन्य मुद्दों से खिसककर सौतेली माँ पर केंद्रित हो गया।
#चित्रगुप्त
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