पुरुष

पुरुष
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मैं कामी 
मैं क्रोधी 
मैं दंगाई 
मैं बलबाई 
पुरुष हूँ मैं!

वही पुरुष जिसने भर भर कर लिखी कविताएं
प्रकृति पर, सौंदर्य पर, बल पर, सौष्ठव पर
और ढोते रहे अपने असुंदर होने की चस्पा इबारतें
अपनी ही पीठ पर, पेट पर, सिर पर, माथे पर

दुनिया की आधी से थोड़ी अधिक आबादी
जिनके रामत्व की चर्चा में 
सीता को वनवास देने की चर्चा खूब गर्म हुई
शम्बूक वध पर भी हैं बड़े बड़े ब्याख्यान।

पर सुग्रीव की मित्रता
या शिबरी के प्रति अगाध प्रेम 
समुद्र और लंका विजय के सामर्थ्य की टीकाएँ छुपा दी गईं कुछ काली इबारतों के नीचे

मेरे कृष्ण रूप में सोलह हजार रानियों की चर्चाएं भी गर्म हुईं
पर गणिकाओं को अपनी अर्धांगिनी बनाकर राजाश्रय देने का मेरा साहस नहीं दिखा।

मेरे न रोने के पीछे मेरा दम्भ देखने वालों ने
दीवारों के रोने से घर में पैदा हुई सीलन को ढाप लेने का मेरा कर्तब्यबोध नहीं देखा

बॉस की डांट 
ब्यवसाय में घाटे की चिंता
कपड़े लत्ते, पढ़ाई- लिखाई , दवाई, राशन, बिल, रिचार्ज, भाड़ा 
ये सब कम है क्या किसी के मनहूस होने के लिए।

इतने के बावजूद भी
ट्रेन और बस में उन्हें बिठाकर खुद खड़े हो जाना
छोटी सी चीज लाने के लिए घंटों लाइन लगाना
 खुद नास्तिक होकर भी उन्हें मंदिर ले जाना
चीजें उनके लिए कम न पड़ें इसलिए मन नहीं है कहकर टाल जाना
उनका 'आराम से गाड़ी चलाइयेगा' मानने के चक्कर में लेट से घर आना और फिर किस करमजली के साथ चक्कर है वाला इल्जाम भी उठाना

उनके हर शौक को अपनी जरूरत बनाना
और अपनी जरूरतों को भी हर रोज घटाना
उनका झूठा गुस्सा और मेरा सचमुच का मनाना
फिर भी पुरुष होने के दंड में हर रोज ताने खाना

अच्छा हो या बुरा  सब सह जाते हैं
ये सच है कि पुरुष अपना दर्द नहीं कह पाते हैं।
#चित्रगुप्त 

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