बहडू बगिया

बहडू बगिया
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वह जमाना और था जब आमों की बड़ी बड़ी बगिया होती थी। जो ब्यक्तिगत होते हुए भी अघोषित तौर पर सार्वजनिक हुआ करती थी। जिसमें आम बीनने खाने या गिरी हुई लकड़ी उठाने पर कोई पाबंदी नहीं होती थी। सरकारी योजनाओं की 'पहले आओ पहले पाओ' वाली स्कीम का शुरुआती ख़याल शायद यहीं से आया हो? मौसम में कभी कोई पेड़ खाली नहीं रहता था जिसके नीचे कोई न कोई शख़्स योगमुद्रा में इधर उधर नजर मारते हुए न दिख जाय। 

उन आमों के नाम भी आज जैसे लंगड़ा, सफ़ेदा, दशहरी, मालदा टाइप नहीं होते थे। उनके नाम पेड़ों के आकार, स्थान या स्वाद के हिसाब से तय होते थे। जैसे मिठौवा, खट्टहवा, बैरिहिवा (बेर सा), पिपरहवा(जिसपर पीपल भी लगा हो), बरगदहवा(बरगद वाला) आदि आदि।

बहडू ऐसे ही किसी गांव में एक जमींदार के हरवाह थे। जिन्हें पूरा गांव लंबरदार के नाम से जानता था। आजादी के बाद जमींदारी फिलहाल तो चली गई थी पर खेतों को सीलिंग से बचाने के लिए इनके बाप दादों ने बहुत सारी बगिया लगवा दी थी जिसके कारण जमीन आज भी इनके पास बहुत थी। 

खेती किसानी करना और सुबह शाम उनके जानवरों को देखना बहडू की नित्य क्रियाओं में शामिल था। लंबरदार के दोनों बेटे पढ़लिखकर शहरों में सेटल हो गये थे। पत्नी का निधन भी बहुत पहले ही हो गया था इसलिए गांव में रहने के लिए अब केवल लंबरदार ही बचे थे। 

एक दिन वह भी समय आया जब लंबरदार भी गुजर गये। अब बहडू को अपने भविष्य की चिंता हुई लेकिन जमींदार के क्रिया कर्म तक उसने अपना नौकर धर्म निभाते हुए मुंह बंद रखने में ही अपनी भलाई समझी। 

लंबरदार की मृत्यु के बाद गांव में तरह तरह की अफवाहें थीं। कि अब तो उनके बच्चे सारी जायदाद कौड़ी के भाव बेंच देंगे। वे शहरों में रहने वाले हैं उन्हें आखिर गांव से क्या लेना देना। इस अंदेशे में गांव के कई संभ्रांत लोगों ने उनकी जमीनें खरीदने की योजनाएं भी बना रखी थीं। 

लंबरदार की तेरहवीं समाप्त हुई और उसके दूसरे दिन ही बरषी को भी निपटा दिया गया जिससे उन्हें मुखाग्नि देने वाले को साल भर तक तरह तरह के खान पान और रहन सहन का बरौवा न करना पड़े। 

सारी धूम धाम खत्म होने के बाद लंबरदार बेटों ने बहडू को बुलाया तो जैसे उसकी जान ही निकल गई। लेकिन जब  फैसला आया तो उसे सुनकर वह बल्लियों उछल पड़ा। 

घर से लेकर सारी खेती पाती बाग बगीचे की जिम्मेदारी अब बहडू के सिर पर आ गई थी। वह अब नौकर से लंबरदार का बटाईदार बन गया था। 

गांव के हर तरफ उसका ही खेत लगभग दो सौ पेड़ों की बगिया डेढ़ दर्जन के आसपास भैंस और गायें। बहडू देखते ही देखते स्वयं लंबरदार बन गया था। अब वह जिसे चाहता उसे अपने खेत में जाने देता या जिसको चाहता मना कर देता। उसकी चहेती घसियारिनों को ही उसके खेत में जाकर घास काटने की अनुमति थी। कुछ ही समय में पूरा गांव उसके इस बदले ब्यवहार से त्रस्त हो गया। छोटी नदी की बाढ़ जिसतरह खतरनाक होती है। उसी तरह बहडू की नई जमींदारी भी उसे हज़म नहीं हो रही थी। 

आम का सीजन आया तो उसने गांव वालों को बाग में जाने से भी मना कर दिया। आमों की रखवाली करके उसे शहर में बेंचकर मोटा पैसा बनाने की उसकी इच्छाएं अंदर ही अंदर हिलोरें मारने लगी थीं। बहडू समय बदलने पर आदमी के बदल जाने की जीता जागता मिसाल था। दिन भर खेतों में खटने वाला मरियल सा बहडू अब शेर की तरह दहाड़ें मारता और पुराने जमींदारों वाली गालियां जो उसने अपने लंबरदार से सीखी थीं उसे भी दिन में दो चार बार किसी न किसी पर आजमा ही लेता।

आमों के पकने का समय आने पर बहडू ने रात में भी बाग में ही सोना शुरू कर दिया। इससे जो गांव वाले चोरी छुपे कुछ आम बीन लाते थे वो भी बंद हो गया। गांव के सबसे मीठे आमों वाले पेड़ उसी बगिया में थे। इसलिए ये बात गांव वालों के लिए असह्य थी। 

इस बात से तंग आकर एक शाम इसी गांव में रहने वाले सरजू और लल्लन ने योजना बनाई कि पूर्णिमा वाली रात में बहडू को सबक सिखा ही दिया जाएगा। 

दो दिन इंतज़ार के बाद आख़िर वो रात भी आ गई। रात बारह बजे के बाद दोनों काले कंबल ओढ़कर निकल पड़े और बगिया से थोड़ी दूर पर जाकर बैठ गये। कुछ देर यूँ ही बैठे रहने के बाद वे धीरे धीरे बगिया की ओर को चलने लगे। दूर दूर तक चारों तरफ़ जुते हुए खेत जो बर्षात न होने के कारण चांदनी रात में पानी की तरह चमक रहे थे। उसी में काला कंबल ओढ़े दो आकृतियां निरंतर बहडू की बगिया के ओर बढ़ रही थीं। बाग में से कोई हरकत न होने पर उन दोनों को पहले तो अपनी योजनाओं पर पानी फिरता हुआ नज़र आया क्योंकि पेडों के नीचे खाट डाले सोया बहडू उन्हें दूर से दिखाई नहीं दे रहा था। सरजू और लल्लन ने थोड़ी खुसुर पुसुर के बाद मोर की आवाज निकालने का फैसला किया। 

आवाज को सुनकर बहडू उठकर बैठ गया। दोनों काली आकृतियों को अपनी ओर बढ़ता देखकर उसने  दो चार बार तो  हट फट किया पर उनकी गति में कोई परिवर्तन न होने पर वह खड़ा हो गया। अब तक लल्लन और सरजू ने अपनी चाल थोड़ी और बढ़ा दी थी। ये देखकर बहडू के पसीने छूट रहे थे पर वह हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ सीना ताने खड़ा रहा। थोड़ा और नजदीक पहुँच कर दोनों ने 'हो......' की आवाज करके एक साथ बहडू की ओर दौड़ लगा दी। बहडू ने बचपन में भूतों की कहानियां तो बहुत सुन रखी थीं पर किसी दिन उसका इस तरह आमना सामना हो जाएगा ये बात उसने सपने में भी नहीं सोचा था। बहडू जैसे तैसे वहाँ से गिरते पड़ते और भूत भूत चिल्लाते हुए गांव की ओर भागा। 

लल्लन और सरजू ने बहडू के इकट्ठा किये हुए आमों को अपने  कंबल में समेटा और रास्ता बदलकर  घर चले गये। 

दूसरे दिन जब वो सोकर उठे तो बहडू के भूत को छुड़ाने के लिए ओझाओं के मंत्रोच्चार के बीच पूरे गांव का मजमा लगा हुआ था। 

#चित्रगुप्त 




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