यूँ ही
राप्ती सागर एक्सप्रेस में नागपुर से गोंडा के सफर था। टिकट वेटिंग वाला था इसलिये दरवाजा पकड़ के ही खड़ा था। एक परिवार भी यात्रा कर रहा था जिनकी आठ सीटें कन्फर्म होने के बाद भी आदमी/औरतें/बच्चे सीटों के हिसाब से ज्यादा हो रहे थे। एक एक सीट पर दो दो के बाद भी बचे हुए अतिरिक्त लोग बीच में फर्श पर सो गये। बच्चों को आने जाने वाले रास्ते पर चादर बिछा कर सुला दिया गया।
बच्चों का रास्ते में सो जाना आने जाने वालों को रात भर अखरता रहा.... खोमचे वाले आते जाते समय तरह-तरह की बातें सुनाते रहे पर उनके परिजनों पर इसका कोई ख़ास असर न हुआ....
सुबह का वक्त होने को आ गया था। ट्रेन उरई से आगे चल रही थी। जी आर पी के दो सिपाही ट्रेन की चेकिंग करते हुए आये और बच्चों के ऊपर पैर रखते हुए निकल गये। पहले के पैर रखते ही जद में आया बच्चा चिल्लाते हुए उठकर बैठ गया था। उसके बाद भी उसके पीछे चलने वाले ने दूसरे सोये बच्चे के ऊपर पैर रखकर आगे जाना ही मुनासिब समझा अब दूसरा भी चिल्ला रहा था।
मैं सामने था तो रास्ता रोक लिया... इससे पहले मैं कुछ कहता उन बच्चों की मायें अपना अपना चप्पल सम्हालकर मोर्चा ले चुकी थीं। मैंने तुरंत रास्ता भी छोड़ दिया था लेकिन तब तक चप्पलों से उनकी अच्छी भली खातिरदारी हो चुकी थी।
मैंने तो एक पल की देर किये बगैर अपनी बोगी बदल ली अब इसके आगे क्या हुआ होगा ये भगवान जाने...
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