कविताएं
रावण
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"रावण तुम फिर आ गये न मरने?"
"हर साल आते हो"
"इस साल भी आ गये"
"और अगले साल भी आओगे"
"फिर उसके अगले साल भी"
"और फिर उसके भी अगले साल"
"यानी आते ही रहोगे"
पर सुनो-
वो गरीबी जो दर-दर मुंह बाये खड़ी है
कभी उसे भी लेकर आओ
और खड़ा करो अपने बगल में...
वैमनस्यता!
"जो फैल रही है जन जन के भीतर"
"कभी उसे भी खड़ा करो"
"राम की तीर के आगे"
"और कहो कि मारो इसे भी"
छद्म धर्मध्वजा वाहक
झूठे, पाखंडी, हरामखोर, मक्कार, बातंकवादी
छली, कपटी, धूर्त,
कामी, हरामी,
तलवे चट्ट,
आदमियों के गिरगिटावतार
मूर्धन्यों के लकड़बग्घे
वहशियों के बहसी
वहशतों के दरोगा
"इतने घूम रहे हैं"
"छुट्टे सांड़ों की तरह"
"कभी इन्हें भी तो उतारो"
"रामादल के आगे"
फिर लगाओ नारा-
"आनंदकंद दशरथ चंद्र सियावर राम चन्द्र की ....जय"
"और जला डालो इन्हें भी"
"अपने साथ..."
क्योंकि मेरी जी एस टी के हिसाब से-
"तुम्हारे जलने में फायदा तभी है"
"जब ये सब भी जलें"
"वरना मत जलो तुम भी!"
पकड़ लो कोई एक पोर्टफोलियो
और ऐश करो.....
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गणित
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एक घटना घटी
सबने सुना
फिर सबने जोड़ा, घटाया और गुणा-भाग किया
अब जिसका घटना के पक्ष में फायदा था...
वो इसके पक्ष में खड़े हो गये।
जिसका विपक्ष में फायदा था...
वो विपक्ष में खड़े हो गये।
और जिसका कहीं फायदा नहीं था
वो कान में रुई डालकर सो गये।
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//संविधान//
स्वतंत्रताएं जब अराजक होने लगीं
मनमानियां बढ़ने लगीं
जानवरों को छोड़ते छोड़ते
आदमी छुट्टे हो गये
तो मन में उत्कंठा जगी
कि पढूं मैं भी संविधान की किताब
और देखूं
कि कहाँ लिखी हैं
पुलिसवाले के मुंह से टपकने वाली भद्दी गालियां
नेता जी का रौब
अफसर शाही का नाकारापन
दफ्तरों में घूमती अनुदान के फाइलों की अंतिम सांसें
अदालतों में बैठे पेशकार से
दस दस रुपये में बिकती मुकदमे की तारीखें
कानून की देवी के आंखपर बंधी पट्टी के ऊपर जमी मोटी धूल को अनदेखा करके अपने चश्मे की धूल को पोंछते हुए न्यायाधीश
बिकते हुए गवाह
अस्थि पंजर में बोटी ढूढते हुए वकील
कहाँ लिखा है
बेवाओं की पेंशन पर अंतिम दस्तखत से पहले
बड़े बाबू की आंखों का छत्तीस डिग्री का कोण
किताब खोलकर बैठा ही था
कि एक बंदर उसे झपट कर पेड़ पर चढ़ गया है
मैं नीचे खड़ा हूँ
कुछ कुत्ते भौंक रहे हैं
और बंदर उसका पन्ना पन्ना फाड़ रहा है
नीचे फेंक रहा है।
एक शब्द गिरा है समानता
फिर कुत्ता और जोर से भौंका है
फिर दूसरा शब्द गिरा है धर्मनिरपेक्षता
और लाउडस्पीकरों पर कर्ण भेदी ध्वनियां गूंजने लगी हैं।
एक और शब्द गिरा शिक्षा का अधिकार
जिसपर भैंस ने गोबर कर दिया है।
पन्ना दर पन्ना गिरता रहा
शब्द दर शब्द उड़ते रहे
अब बंदर के हाथों में कुछ नहीं बचा है
और मैं भी खाली हाथ हूँ।
कुछ सरकारी मुलाजिम आये हैं
वहाँ फैले कूड़े को देखकर
उनकी बांछें खिल गई हैं
साथ में कैमरे वाले भी हैं
झाड़ू लगाया जा रहा है।
फोटो सेसन चालू है।
#चित्रगुप्त
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