बड़े साहब बड़े कवि
बड़के साहब बड़के कवि
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साहब को कुछ दिन पहले तक संगीतकार बनने की खुजली लगी थी। तभी उन्होंने दो चार तंबूरे मंगवा लिए थे। उसे दो चार दिन ठोंका पीटा बजाया फिर चार छः बार हाथ काट लेने के बाद उन्हें ये अकल आ गई कि संगीत उनके वश का नहीं है।
बड़ा साहब होना कोई इतनी छोटी बात तो होती नहीं है कि वो इतनी आसानी से हार मान लें। उन्होंने थोड़ा सा दिमाग लगाया जो कि है भी उनके पास थोड़ा ही तो कविता के जसामत की शामत आ गई। उन्होंने प्रेम कवियों पर मर मिटने वाली आधुनिकाओं के बारे में बारे में सुन रखा था। इस आकर्षण ने पहले भी उनका जीना हराम किया था लेकिन तब इस बीज में अंकुरण नहीं हो पाया था। समय के हवा पानी से धरती फूटी और अंकुर बाहर निकल आया।
कविताओं की करीब दर्जन भर किताबें मंगाकर उसे हफ्ते भर सिरहाने रखकर सोने के बाद उन्हें इस बात का एहसास होने लगा कि वो कवि ही हैं।
फिर क्या था उन्होंने कलम पकड़ ली और सादे कागज का गला घोटने पर उतारू हो गए।
"बड़े साहब कविता लिख रहे हैं।" एक चपरासी ने आकर दफ्तर में सूचना दी।
बड़े बाबू जिन्हें मोबाइल पर कुछ भी लिखना नहीं आता था। उन्होंने फौरन एक नए आए को बुलाकर उसे थोड़ी देर धमकाया। उसे अपना वरिष्ठता क्रम, ऊपर की पहुंच आदि बताया फिर असली मुद्दे पर आ गए।
"तू तो कविताएं वगैरह लिखता है न? इसलिए किसी कविता पर टिप्पणी करने के लिए कोई सौ डेढ़ सौ शब्दों को टाइप करके फौरन मेरी मोबाइल में भेज दे ...। साहब की कविता आने वाली है उसपर टिप्पणी करना है। बस इतना ध्यान रखना कि उसके हर वाक्य में बेहतरीन, अकल्पनीय, अद्भुद, न भूतो न भविष्यति, जैसा कुछ कुछ हर वाक्य में आना चाहिए बस।
"लेकिन साहब..." नया बाबू कहना चाह रहा था कि कविता तो पढ़ी ही नहीं है फिर उसपर टिप्पणी कैसे लिख दूंगा। लेकिन बड़े बाबू ने उसे हौंकते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया और जल्दी टिप्पणी को टाइप करके उनके मोबाइल में भेजने का आदेश भी वरना अगले महीने की तनख्वाह रोक दिए जाने की धमकी मुफ्त में थी।
साहब के कविता लिखने की खबर सरकारी विभाग में अकर्मण्यता की तरह एक कुर्सी से दूसरी कुर्सी तीसरे मेज से चौथे मेज फैलने लगी। दफ्तर के सारे कर्मचारी अपना सारा काम धाम छोड़कर मोबाइल पकड़े अपनी अपनी टिप्पणियां टाइप करने लगे। शेष सारा काम आने वाले कल के लिए टाल दिया गया। अपने काम से आने वाली आम जनता को भी रसीद की जगह साहब के प्रोफाइल की लिंक टाइप करके दी जाने लगी। लोग एक दूसरे की टिप्पणियां पढ़कर उसमे से अच्छे-अच्छे शब्दों को टीपने लगे। सभी को अपनी टिप्पणी बेहतरीन बनाने की चिंता थी। कुछ ने गूगल पर सर्च करके थोड़ा थोड़ा कॉपी पेस्ट किया तो कुछ ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद लेकर टिप्पणी लिख मारा।
सारे मातहत अपनी अपनी टिप्पणी के साथ तैयार थे। सभी को इंतजार साहब की कविता वाली पोस्ट आने का था। लोग स्टेनो को फोन लगाकर कविता में हुई प्रगति की जानकारी ले रहे थे। स्टेनो बारी बारी से सबके संदेशों का उत्तर दे रहा था। "इस कविता के लिए साहब ने बड़ी मेहनत की है। उन्होंने दफ्तर आकर पिछले दो तीन दिनों से कोई नहीं फाइल देखा है। वह दफ्तर आते ही अपनी डायरी खोलकर बैठ जाते हैं। न कुछ बोलते हैं न डोलते हैं बस डायरी में सिर घुसाए बैठे रहते हैं। किसी को भी उनसे मिलने की इजाजत नहीं कोई टेलीफोन नहीं कोई वार्ता नहीं। बस ऊपर से आने वालों फोन को वह अटेंड करते हैं कुछ खुसुर पुसुर करते हैं फिर फोन रखकर उसी डायरी में घुस जाते हैं।"
स्टेनो की बातें कर्मचारियों में फॉरवर्ड होती सभी कर्मचारी साहब के कविता कर्म की भूरि भूरि सराहना करते और अपनी टिप्पणी को बेहतर से और बेहतर करने में लग जाते।
कर्मचारियों के प्रगति प्रपत्र में साहब की टिप्पणी का इतना महत्व था कि वह किसी को एक नंबर कम दे दें तो उसके तनख्वाह में होने वाली वृद्धि रुक जाए। जो कर्मचारी पदोन्नत होने वाले हों उनका तो पूछिए ही मत उनके लिए तो साहब के कलम की एक बूंद स्याही कई लीटर खून के समान होती है। साहब के असीमित अधिकार और कर्मचारियों का एक मात्र कर्तव्य चमचागिरी...।
पहले मक्खन लगाने का दायरा सीमित था। वही साहब के कुकुर जैसे मुंह को स्मार्ट बताना, फैली हुई तोंद को फिट एंड फाइन बताना, भद्दे से पहनावे को यूनिक बताना आदि ही शामिल था। लेकिन जैसे जैसे विज्ञान ने तरक्की की मक्खन लगाने का दायरा भी बढ़ता गया। अब तो सोशल मीडिया पर चेपी गई इमोजी और की गई टिप्पणियों से भी कर्मचारियों की कुशलता आंकी जाने लगी।
साहब की कविता आ गई। कर्मचारियों ने अपनी अपनी टिप्पणियां ठेलना शुरू कर दिया। देखते ही देखते लाइक्स की संख्या हजार के पार पहुंच गई। कमेंट की संख्या भी कुछ इसके आस पास ही थी। देखते ही देखते साहब बड़े कवि बन गए। जिस विभाग को साहब जी वर्षों से उल्लू बना रहे हैं उसी विभाग ने आज उन्हे बड़ा कवि बना दिया था।
देश की दुर्गति कराने के लिए प्रतिबद्ध ऐसे भीमकाय साहबों और उनके टुटपुंजिए सेवकों को कविता का उद्धार कराने के लिए लाख लाख लानतेँ और धिक्कार!
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