दो गजलें

(1)
जिनके आगे अटक रहा हूं मैं।
सिर्फ उनको खटक रहा हूं मैं।

एक तेरा पता नहीं मिलता
इसलिए ही भटक रहा हूं मैं।

शेष सारे विषय में डिसडिंक्शन 
इश्क ही में लटक रहा हूं मैं।

तेरे हक की दुआएं मिल जाएं
हर कहीं सिर पटक रहा हूं मैं।

तुझको देखूं या चांद को देखूं 
देखता एकटक रहा हूं मैं।

दूर तुझसे बुला रही दुनिया
और गर्दन झटक रहा हूं मैं।

रूप का स्वाद चख रहे कौवे
बैठा आंसू गटक रहा हूं मैं।

(2)
भागो छोड़ो समझाना बेकार है।
यदि बंदर के हाथों में तलवार है।

लायक जगहों पर काबिज हैं नालायक
इतने का ही सारा बंटाधार है।

घटना का सच कह दोगे तो मारेगी
दुनिया को बस अपना सच स्वीकार है।

प्यार भरा है गुस्से से पापा जी का
मां के गुस्से में भी थोड़ा प्यार है।

बच्चे कबसे बैठे हैं चौखट पर ही
इक मां के बिन सारा घर बेजार है।

एक झरोखा रह जाता तो अच्छा था
आंगन में उठने वाली दीवार है।

अंधों की नगरी के काना राजा को
मन के लूले लंगड़ों की दरकार है।

Comments

Popular posts from this blog

लगेगी आग तो

कविता (चिड़िया की कैद)

बाबू राव विष्णु पराड़कर