गजल

बाहुबल चारों दिशाओं को विजित करता रहा
प्रेम केवल मन हमारा ही मुदित करता रहा।

तोड़ने वाले हमेशा फूल लेकर चल दिए
मैं सभी को कंटको से ही विदित करता रहा।

हाथ से वो भी गया था हाथ से ये भी गया
जो दुराहे पर खड़ा मन ही भ्रमित करता रहा।

मारकर सुकरात मीरा यीशु और मंसूर को
राजसत्ता इस तरह से देशहित करता रहा।

एक चुटकी छांव की खातिर फिरा वो उम्र भर
और खुद ही भूमि को जंगल रहित करता रहा।

Comments

Popular posts from this blog

बड़े साहब बड़े कवि

दो रुपए

बेकार आदमी