नेता हिताय जनता दुखाय
नेता हिताय, जनता दुखाय
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मेरी आजी एक कहानी सुनाती थीं- 'बूढ़ा की टेंड़िया' टेंड़िया, पुराने जमाने में बाँह में पहनने वाला कड़ानुमा एक गहना होता था जो चांदी का बनता था। जिसे औरतें पहनती थीं। उसमें ये था कि कोई बूढ़ा माता थीं। जिन्होंने एक टेंड़िया बनवाया था।
नया गहना... लेकिन कोई उसके बारे में पूछ नहीं रहा था। बूढ़ा के मन में बड़ा अरमान था कि कोई पूछे तो वे उसका बखान कर सकें कि कैसे-कैसे उन्होंने इसे पाई-पाई जोड़कर हजारों खर्च करके बनाया और फिर सुनने वाले से तारीफ पा सकें।
दो चार दिन तो इसी उहापोह में बीत गए कि कोई अब पूछेगा कि तब पूछेगा...? लेकिन किसी ने भी उनसे टेंड़िया के बारे में न पूछा। वे उसे पहनकर बार-बार इधर से उधर जातीं। लोगों से हाथ मटका मटका कर बात करतीं लेकिन कोई उनके गहने की ओर ध्यान ही न देता। थक हार कर एक दिन उन्होंने अपने ही घर में आग लगा ली। आग बुझाने के लिए पूरा गाँव जुटा, यहाँ बूढ़ा फिर से टेंड़िया दिखाने के लिए हाथ मटका मटकाकर 'इधर पानी डालो ' 'उधर पानी डालो' बताती रहीं। उनका घर जलकर खाक हो गया। तब जाकर अंत में किसी ने पूछा "बूढ़ा माता ये टेंड़िया कब बनवाया..?"
प्रश्न सुनते ही बूढ़ा का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। "दाढ़ी जरऊ तुम पहले ही पूछ लेते तो मैं अपना घर क्यों जलाती?"
ठीक इसी प्रकार चुनाव से कुछ दिन पूर्व हमारे नेताओं के अंदर भी समाज का परम हितैषी होने का कीड़ा जागता है। फिर इन्हें अपनी समाज सेवा दिखाने, गरीबों का दुःख दर्द बांटने का मौका चाहिए। बुरा वक्त कोई बुलाने से तो आता नहीं। लेकिन इन्हें तो जल्दी रहती है। क्योंकि चुनाव तो सिर पर होता है। फिर ये दंगे करवाते हैं। बस्तियां जलाते हैं। उसके बाद समाज सेवक बनकर पहुंच जाते हैं।
इनका दुःख बूढ़ा की टेंड़िया है। इनके आंसू बूढ़ा की टेंड़िया है। इनके बयान बूढ़ा की टेंड़िया है। जिसे दिखाने के लिए ही इन्होंने ये सब करवाया होता है।
जैसे पुरानी फिल्मों का हीरो हीरोइन की इज्जत लूटने के लिए पहले गुंडे भेजता था फिर महाबली कोला बनकर उसे बचाने पहुँच जाता था। ताकि लड़की के दिल में अपने लिए थोड़ी सी जगह बन जाए।
ठीक उसी प्रकार ये दंगे ये बवाल सब नेताओं के प्रायोजित कार्यक्रम हैं जिससे इन्हें अपने आप को जनता का सबसे बड़ा मसीहा दिखाने का मौका मिल सके।
जो हिंदुओं का नेता है वो हिंदुओं को भड़का रहा है। जो मुसलमानों का नेता है वो मुसलमानों को भड़का रहा है। कोई दलितों को भड़का रहा है, कोई आदिवासियों को भड़का रहा है। वहीं जो बुद्धिजीवी और पत्रकार हैं वो इन सबको भड़का रहे हैं।
बड़े अफसर नेताओं को ख़ुश करने में पसीना-पसीना हो रहे हैं। छोटे अफसर बड़े अफसरों की मिन्नतों में लगे हैं।कर्मचारी बेचारे अफसरों के प्रति अपनी स्वामिभक्ति सिद्ध करने में सारी ऊर्जा लगा रहे हैं।
और जनता बेचारी इस ताकधिनाधिन में अपने कूल्हे तो मटका रही है। लेकिन तबले पर थाप देने वाले हाथ कब उसका ही सिर बजाने लगते हैं ये बात उसे सिर दर्द हो जाने के बाद ही पता चलती है।
#चित्रगुप्त
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