उम्मीदें

ऐसी-वैसी कैसी-कैसी उम्मीदें
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वैसे तो उम्मीद से होना कोई ग़लत बात नहीं है। क्योंकि बड़े लोगों ने कहा है कि दुनिया उम्मीद पर ही क़ायम है। बेशक ये बात सही है क्योंकि उम्मीद से होने के बाद ही वारिस के आने का रास्ता साफ होता है। लेकिन इस उम्मीद के धरती पर आने के पूर्व भी वे तमाम क्रिया कलाप जो माँ बाप ने करना होता है उसके किये बिना ही अगर कोई उम्मीद से होना चाहे तो फिर उसे क्या कहेंगे?

ये सच है कि किसी भी स्वतंत्र देश का कोई भी नागरिक कुछ भी उम्मीद पाल सकता है। ऐसा संविधान में लिखा है। लेकिन उसकी वो उम्मीद पूरी होगी कि नहीं ये कहीं नहीं लिखा। 

जनता ने गरीबी हटाओ वाले नारे पर भी सरकार चुनी, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है वाले नारे पर भी, साथ ही अच्छे दिन वालों को भी मौका देकर देख लिया। लेकिन नतीजा हमेशा ही ढाक के तीन पात ही रहा। कुछ विशेष जातियों के ठेकेदार हर चुनावी दंगल में अपने समुदाय के नाम पर मोल-भाव करते हुए सत्ता की चाँदी काटते रहे लेकिन अपने घर में एक कुत्ता घुमाने वाला भी अपनी जाति का नहीं रखा।  ऐसे क्रिया कलापों से ऐसे नेताओं के घर तो विकास की गंगा छप्पर फाड़ कर बही लेकिन बाकी बिरादरी वाले बस उसे देखकर अपनी जातीय दम्भ को ही पोस पाए। बाकी इनके हाथ कुछ नहीं लगा। 'अरे भैया गदही पालकर खोआ फैक्ट्री लगाने का सपना तो नहीं देखा जा सकता न?' लेकिन लोग देख रहे हैं और ऐसा करने से रोकने पर उसे अपने संवैधानिक आजादी से जोड़ दे रहे हैं। जैसे आजादी आजादी न हुआ कोई मंदिर में टंगा घंटा हो जिसे कोई भी कभी भी बस हाथ हिलाकर बजा सकता हो।

मुझे तो लगता है कि जनता के लिए इस मसअले पर एक बृहद प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना चाहिए। लेकिन चल रहे विद्यालयों की दशा देखकर ऐसा इरादा भी त्यागना पड़ता है। 
 
जब पहला लॉकडाउन लगा था उस समय एक भाई साहब का फोन आया कि मैं बरेली में फंसा हूँ आप कुछ कीजिये। मैंने कहा खाना पीना न मिल रहा हो या रहने की व्यवस्था न हो तो बताइए कुछ करते हैं कोई न कोई जुगाड़ तो हो ही जायेगा। वो बोले नहीं 'मैंने घर आना है'। मैंने कहा भैया देश के प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन का एलान किया है अब मैं उनसे भी बड़ा आदमी तो हूँ नहीं जो तुमको वहाँ से निकालने के लिए लिए लॉकडाउन खुलवा दूँ। समस्या तो है लेकिन ये केवल मुझ पर या तुम पर ही नहीं पूरी दुनिया पर है। सारे लोग परेशान हैं थोड़ा दिन धीरज रखिये फिर धीरे-धीरे कोई न कोई रास्ता निकलेगा ही। 

फिलहाल बात आई गई हो गई वो वहीं रहे या आ गए इसका भी पता नहीं चला लेकिन साल भर बाद वो बाज़ार के में किसी चौक पर मिले तो मुँह फेरकर खड़े हो गए। मैंने हाल पूछा तो वे तुनककर बोले "कौन सा हाल जब मैं वहाँ फंसा हुआ था तो मदद नहीं किये।"

लोग इतने भोले तो नहीं हैं जितना होने का नाटक करते हैं। भाई जैसे आप आदमी हैं वैसे ही तो सामने वाला भी है। 
इसलिए जो काम आप नहीं कर सकते हैं ठीक वही काम दूसरा कैसे कर देगा इसकी उम्मीद कैसे कर लेते हैं। ये शोध का विषय तो है। लेकिन जबसे पीएचडी वालों को चपरासी की पोस्ट के लिए आवेदन करते हुए देखा है शोध वाला इरादा भी त्याग ही दिया है।

एक मास्टर साहब बता रहे थे कि उनके एक बचपन के दोस्त ने अपने बच्चे का दाखिला उनके स्कूल में ये कहते हुए कराया कि इसे आप ही सुधार सकते हैं। वे बता रहे थे कि उन्होंने बहुत मेहनत की लेकिन वो बच्चा खुद सुधरने के बजाय और बच्चों को खराब कर रहा था तो उन्होंने मजबूरी में उसे स्कूल से निकालना पड़ा। इस पर उनके मित्र चिढ़ते हुए उनसे लड़ने आ गये। "आप मेरा इतना छोटा सा काम नहीं कर सके मेरा बच्चा बिगड़ा हुआ है ये तो मैंने आपको पहले ही बता दिया था।"

अरे भैया आपने बताकर कोई एहसान तो नहीं कर दिया। बच्चा छह घंटे ही स्कूल में रहता है बाकी अट्ठारह घंटे तो घर में ही रहता है न? आप अट्ठारह घंटे में अपने इकलौते बच्चे को नहीं सुधार सके तो बेचारा अकेला मास्टर छह घंटे में ही जहाँ सैकड़ों बच्चे और भी हैं वह आपके बच्चे को क्या ख़ाक सुधारेगा। लोग्स कैसी कैसी उम्मीदों के साथ जी रहे हैं? इसका अंदाजा सिर्फ़ छंटे हुए नेता लोग ही लगा सकते हैं। जिसे भुनाकर वो उनका वोट ले लेते हैं फिर कुर्सी पर बैठकर ठेंगा दिखा देते हैं।

एक भाई साहब कवि बनना चाहते थे तो उन्होंने फोन किया। कि भाई साहब कोई जुगाड़ बताइये कि मैं छा जाऊँ। मैंने कहा भाई सबसे पहली बात ये कि ऐसा कोई जुगाड़ होता नहीं और दूसरा ये कि अगर मैं कोई ऐसा जुगाड़ जानता भी होऊँगा तो सबसे पहले उसका इस्तेमाल करके खुद ही बड़का वाला लेखक बनूँगा आपको क्यों बताऊंगा। 

वो बोले आप बताना नहीं चाहते तो कोई बात नहीं लेकिन बता देते तो मेरा भी भला हो जाता। चलो यही मान लो मैंने कहा औऱ हाथ जोड़ लिया।

एक बार एक भाई साहब उधार मांगने आये। मेरे मना करने पर वे तुनककर बोले इतना तनख्वाह पाते हो करते क्या हो जो हजार दो हजार रुपल्ली भी जेब में नहीं रहता। पलटकर कहना तो मैं भी चाहता था कि तनख्वाह तो आप भी लेते हैं फिर भी उधार मांगने की नौबत आ जाती है फिर भी नहीं कहा क्योंकि ऐसा कहने से बीवी ने मना कर रखा है। 

उम्मीदें पालने के लिए ही होती हैं। जमकर पालिये पर अपनी हैसियत और सामने वाले की कूवत देखकर ही पालिये वरना उम्मीदों का टूटना तय ही समझिए।

#चित्रगुप्त

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