लंगड़ी
लंगड़ी
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मिज़ोरम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण राज्य है। जो एक समय तक लुशाई हिल के नाम से असम का एक जिला मात्र था। लेकिन पूर्वोत्तर राज्य पुनगर्ठन अधिनियम के पास होने के ऐतिहासिक फैसले के बाद मिज़ोरम को भारत के 23वें राज्य के रूप में मान्यता मिली। मिज़ोरम जिसका शाब्दिक अर्थ होता है 'पर्वत पर रहने वाले लोगों की भूमि' खड़ी ढलान वाली औसत ऊंचाई की पहाड़ियों से आच्छादित एक हरा-भरा प्रदेश है। विभिन्न जीवजंतुओं और पेड़ पौधों से भरे-पूरे यहाँ के वन सैलानियों के आकर्षण का मुख्य केंद्र हैं। विभिन्न त्योहारों जिसे स्थानीय भाषा में 'कुट' कहा जाता है और आइज़वल महोत्सव के दौरान पारंपरिक परिधानों में बाँस-नृत्य (बम्बू डांस) करते युवक-युवतियों को देखना दूसरे लोक में सफ़र करने के समान मनोरंजक होता है।
समानता चाहे लैंगिक हो या सामाजिक यहाँ के लोकजीवन में जिस प्रकार से देखने को मिलती है उसकी ऐसी मिसाल कहीं अन्यत्र शायद ही मिले। सहकारिता यहाँ के जीवन का मूल तत्व है। यहाँ के लोग जंगल को काटकर फिर उसे जलाकर उसमें कृषि कार्य करते हैं। जिसे झूम खेती कहते हैं। जंगलों की कटाई के दौरान धूप से बचने के लिए मुँह में मुल्तानी मिट्टी का लेप लगाए महिलाएं पुरुषों के साथ काम करती हुई अक्सर देखी जा सकती हैं। धूप से बचने के लिए यहाँ के पुरुष और महिलाएं बाँस की बनी हुई बड़ी गोल टोपी का भी इस्तेमाल करते हैं। चावल से बनने वाली बियर का प्रयोग भी यहाँ बहुतायत में होता है जिसका निर्माण लगभग हर गाँव और मोहल्ले में होता है जिसे स्थानीय भाषा में सिंगमई कहते हैं।
मिज़ो कोई एक जनजाति नहीं बल्कि विभिन्न जनजातियों के समूह का नाम है, जो कि मंगोलों के जाति की विशाल धारा का हिस्सा हैं। इतिहासकारों का मत है कि ये छठवीं सातवीं शताब्दी के आस पास तिब्बत से यहाँ आकर बस गए थे।
यहाँ पर चलने वाली छोटी से बड़ी लगभग सभी दुकानें महिलाओं द्वारा ही संचालित होती हैं। पारंपरिक वेशभूषा त्योहारों या ख़ास आयोजनों पर ही पहना जाता है। बाकी सामान्य दिनों में यहाँ का पहनावा पूरे तरीके से पाश्चात्य शैली वाला ही है। देश में केरल के बाद मिज़ोरम ही वह दूसरा राज्य है जहाँ सम्पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को सरकार द्वारा हासिल कर लिया गया है।
यहाँ के घर लकड़ी कर बल्लियों पटरों और टिन की चादरों की मदद से सड़कों की किनारे-किनारे बनाये जाते हैं। जिसका निर्माण सारा गाँव मिलकर आपसी सहयोग से करता है। यहाँ के रहने वाले लगभग हर आदमी को बाँस और लकड़ी का काम करना आता है। जिसे वे दाव की मदद से बखूबी करते हैं। यहाँ के जंगलों में बाँस के प्रचुर मात्रा में पाये जाने के कारण यहाँ के जनजीवन में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। जिसका प्रयोग खाने पहनने बर्तन बनाने नाचने गाने आदि जीवन के विभिन्न पहलुओं में किया जाता है।
मिज़ोरम में नई आई 'नागा बटालियन' के अधिकारी अपने जवाबदारी के इलाके में सैन्य ख़ुफ़िया तंत्र को मजबूत करने में लगे थे। पुराने सूत्र तलाशे जा रहे थे साथ ही नए सूत्रों की खोज में भी रात दिन एक किया जा रहा था। इसी क्रम में एक सैनिक ने ख़ुफ़िया अधिकारी को आकर सूचना दी कि मिम्बुंग के बस अड्डे पर एक लंगड़ी महिला है जो बिना नागा हर रोज़ बस के आने पर आती है बैठी रहती है और फिर सब यात्रियों के जाने के बाद चली जाती है।
"तो क्या तुमने उसका पीछा करने की कोशिश नहीं की?" अधिकारी ने पूछा।
"पिछले तीन दिनों से पीछा कर रहा हूँ सर लेकिन उसकी और कोई हरकत संदिग्ध नहीं लगी। सिवाय इस बात के कि वह हर रोज बसअड्डे पर आती है और सब यात्रियों के चले जाने के बाद चली जाती है।"
सैनिक को भेजकर ख़ुफ़िया अधिकारी उसी लंगड़ी महिला की सोच में डूब गये। स्मगलर ऐसे ही महिलाओं या पुरुषों का इस्तेमाल करके अपने पेशे को चमकाते हैं। शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को इस काम मे लगाने के पीछे उनका मकसद सुरक्षा एजेंसियों को धोखा देना भी होता है क्योंकि ऐसे लोगों पर कोई शक नहीं करता, और पकड़े जाने पर भी इमोशनल ब्लैकमेलिंग करके इन्हें आसानी से छुड़ाया जा सकता है।
मिज़ोरम वैसे तो शांत प्रदेश है लेकिन बर्मा (म्यांमार) और बांग्लादेश के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा होने के कारण हथियारों और मादक द्रव्यों का गैर कानूनी व्यापार यहाँ खूब चलता है। दोनों देशों के साथ अपने देश की खुली सीमा और चारों तरफ फैली हुई उन्नत पहाड़ियां साथ ही ऊष्णकटिबंधीय घने जंगल स्मगलरों के लिए वरदान के समान हैं। स्थानीय एजेंटों की मदद से ऐसे गैर कानूनी कामों को बड़े ही सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया जाता है। सुरक्षा बलों को जिसे रोकने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं।
हजारों खूबियों के बावजूद मिज़ोरम इस देश का वह इकलौता राज्य है जहाँ के अलगाववाद को नेस्तनाबूद करने के लिए तत्कालीन भारत सरकार ने हवाई बमबारी करवाई थी। इस बात की कसक यहाँ की जनता में आज भी देखने को मिलती है जिससे वे सुरक्षा बलों के साथ ज्यादा मित्रवत नहीं हो पाते। हालांकि हाल के वर्षों में मिज़ो लोगों का दिल और दिमाग जीतने के लिए सुरक्षा बलों की ओर से तरह-तरह के प्रोजेक्ट चलाये गए हैं जिसमें मिलिट्री सिविक एक्शन प्रोग्राम के तहत जनसुविधा के सामान मुहैया करवाना, खेल कूद प्रतियोगिताएं आयोजित करना, महिलाओं का सेल्फ हेल्प ग्रुप निर्माण, नवयुवकों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना आदि शामिल है।
मिम्बुंग मिज़ोरम का दूरस्थ गाँव है जो चम्फाई जिले में पड़ता है। इस गाँव के लिए दो सरकारी बसें हैं। एक बस सुबह वहाँ से आइज़वल के लिए जाती है तो वहीं दूसरी आइज़वल से मिम्बुंग के लिए आती है।
खुफिया अधिकारी के लिए यह चुनौती कोई नई नहीं थी वह काफी अनुभवी ब्यक्ति थे। उन्होंने लंगड़ी के बारे में खोज बीन करने के लिए वीसीपी (विलेज कॉउंसिल प्रेसिडेंट) से मिलने की योजना बनायीऔर फौरन ही उसके अमल में जुट गये।
एक शाम सूचनाएं एकत्र करने के क्रम में खुफिया अधिकारी की मुलाकात वीसीपी से हुई तो उन्होंने इधर-उधर की बात करते-करते लंगड़ी वाला प्रसंग भी छेड़ दिया।
"अरे कहाँ साहब वो तो बहुत सीधी-सादी और गरीब महिला है। बेचारी किस्मत की मारी है इसलिए इधर-उधर पागलों की तरह घूमती रहती है। बाकी वो किसी ऐसे वैसे कामों मे शामिल नहीं है।" वीसीपी ने बताया।
"लेकिन वो हर दिन बस के आने पर बसअड्डे क्यों जाती है?" खुफिया अधिकारी ने सवाल किया।
"उसकी एक लंबी कहानी है साहब! समय हो तो बताऊँ?" वीसीपी ने लंबी साँस खींची और अधिकारी के हामी के उपरांत बताना शुरू किया।
मार्च महीने की पहाड़ी सुबह थरथरा रही थी। सूरज अभी निकला ही था। गांव वाले खा पीकर अपने-अपने कामों पर निकलने की तैयारी कर रहे थे। पूर्वोत्तर के आदिवासी इलाकों में लगभग हर जगह दो बार खाना खाने का प्रचलन है। एक बार वह सुबह खाना खाकर काम पर निकल जाते हैं और वापस आकर शाम में अंधेरा होने से पहले दुबारा खाते हैं। मसांगी अपनी माँ के साथ जंगल से लकड़ियां लाने की तैयारी कर रही थी। मसांगी के एक पांव में पोलियो था और वह लंगड़ाकर चलती थी। इसी कारण उसके सामने तो हर कोई उसे उसके नाम से ही पुकारता लेकिन पीठ पीछे सब उसे लंगड़ी कहते थे।
मसांगी का एक पाँव कमजोर जरूर था लेकिन इससे उसकी हिम्मत और क्षमता में कोई कमी नहीं थी। वह बड़े से बड़ा जंगली सुअर भी अगर उसके फंदे में फंस जाए तो वह उसे मारकर पीठ पर उठा लाती थी।
मिम्बुंग लुशाई आदिवासियों का गांव है। यहां की पुरानी सड़कें दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जो अंग्रेजों ने जापानियों से मोर्चा लेने के लिए बनवाई थी अब तक वही हैं। जिनके रिपेयरिंग और चौड़ीकरण का काम बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (बीआरओ) की तरफ से आज़ाद भारत में भी समय-समय पर किया जाता रहा है। बीआरओ भारतीय सेना की ही एक शाखा है जिसमें कुछ नियमित अधिकारियों और कर्मचारियों के द्वारा सीमांत इलाकों में कांट्रेक्ट पर मजदूर रखकर सड़कों का निर्माण व रिपेयरिंग का काम करवाया जाता है।
सड़क पर डामर डालने के लिए बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन में कांट्रेक्ट पर काम करने के लिए झारखंड और बिहार से आये मजदूरों ने मिम्बुंग में ही अपना डेरा जमाया था। ननकू भी उन्हीं में से एक था। जो अपने आप को बिहार का बताता था।
मिज़ोरम में महिलाओं का खुला ब्यवहार, बातचीत का तौर तरीका खासकर हिंदी पट्टी से आने वालों के लिए उनके किसी तिलिस्म के खुल जाने जैसा होता है। क्योंकि मैदानी इलाकों के गांवों में आज भी महिलाओं का संकोची स्वभाव ही ऐसे पुरुषों की आदत में शामिल होता है। जहाँ ये किसी के दो बात कर लेने का मतलब भी 'पट जाने' से लगा लेते हैं। महिलाओं का खुला ब्यवहार और लैंगिक समानता पूरे पूर्वोत्तर भारत की विशेषता है। बेटा होने पर खुशियां मनाना और बेटी होने पर मातम करना जैसी आदतें अभी तक महिलाओं को देवी का दर्जा देने वाले राज्यों से यहाँ तक नहीं आई हैं।
इन मजदूरों के लिए महिलाओं और लड़कियों का ऐसा ब्यवहार उनके पेरिस या लंदन पहुंच जाने जैसा था। नए आये मजदूर तो कुछ दिन घूम-घूमकर इनसे बात करने में ही बिता देते। फिर जब पैसे की तलब और पेट की भूख सताती तभी काम की ओर लौटते।
फिलहाल मसांगी का रोज जंगल की ओर जाना और ननकू से उसका हाय हेलो हो जाना ये क्रम पहले दिन से शुरू हुआ तो फिर धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। थोड़े ही दिन बाद ननकू पलकें बिछाकर उसका इंतजार करने लगा। मसांगी के लिए इसमें कुछ नया नहीं था लेकिन ननकू के लिए ये सब अप्रत्याशित से रत्ती भर भी कम न था। ननकू पहली बार मिज़ोरम आया था, लेकिन उसके साथी मजदूरों में बहुत से ऐसे थे जिनके बाल उधर ही पहाड़ियों में घूमते हुए सफेद हुए थे। ननकू उनसे काम चलाऊ 'मिजो' (भाषा) सीखता रहता था। एक दिन उसने अड्डे से निकलते ही अपने बगल में चल रहे मजदूर से पूछा- "काका ये आई लव जू को मिजो में का कहते हैं?"
"कमांग आइचे मो"
"क्या कमांग आइचे मो"
"हाँ हाँ वही..." साथी मजदूर ने उत्तर दिया।
उसके बाद उसने कलवमे, धन्यवाद। लोकल रो, इधर आओ। मो, क्या है… जैसे कई शब्द और वाक्य मिज़ो भाषा के सीखे
ननकू दिनभर काम करता रहा और मन ही मन 'कमांग आइचे मो' का जाप करता रहा इसमें वो कभी मसांगी का नाम जोड़ देता तो कभी उसे कमांग आइचे मो ही रहने देता।
अगली सुबह हुई। सारे मजदूर नित्य क्रिया से निवृत्त होने के लिए पाखाने के आगे पंक्तिबद्ध हो गये। अपना देश खुले में शौच मुक्त सचमुच का अगर कहीं हो पाया है तो वह पूर्वोत्तर भारत ही है। यहाँ के लोग गरीब हैं तो भी टाट पट्टी लगाकर शौचालय बना लेंगे लेकिन खुले में शौंच करने जाना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकते हैं। लकड़ियों की मदद से बिना पैसे के सिर्फ श्रम से बने यहाँ के शौंचालय जुगाड़ इंजीनियरिंग के बेमिसाल उदाहरण हैं।
मजदूरों के अड्डे के सामने थोड़ी ही दूरी पर झरना गिर रहा था, जहाँ से बाल्टियां भरकर पानी की जरूरतें पूरी की जाती थी। कुछ लोग मंजन कर रहे थे साथ ही टॉयलेट की कतार में लगकर अपनी बारी के आने का इंतजार भी कर रहे थे। ठीक उसी समय मसांगी हाथ में लकड़ी काटने वाला दाव (गँड़ासे जैसा लकड़ी काटने का औज़ार) लिए और सिर पर लकड़ी लाने वाली टोकरी लटकाए पगडंडी पर आती नजर आई। सारे मजदूर उसी की ओर देखने लगे। ननकू भी उन्हीं में शामिल था। मसांगी जब और नजदीक आई तो ननकू ने चिल्लाकर कहा- "कमांग आइचे मो मसांगी"
मसांगी ने उसकी ओर नजर उठाकर देखा, थोड़ा सा मुस्कुराई और फिर धीरे से पूछा "इसका मतलब पता है आपको?"
ननकू ने तुरंत हामी भर दी। मसांगी इससे आगे कुछ न बोली और आगे बढ़ गई। लेकिन ननकू की हिम्मत उसके बाद काफी बढ़ गई। उस दिन के बाद वह मसांगी का पीछा भी करने लगा। रात में खाना खाने के बाद कभी कभी वह गायब भी रहता। ऐसा कई मजदूर करते थे। इसमें कोई नई बात नहीं थी।
किसी भी अनजान के घर मे जाकर बैठना उनके घर की महिलाओं से बातचीत करना इसको यहाँ का हर रहवासी बहुत ही सामान्य तरीके से लेता है लेकिन यही बात हिंदी पट्टी वालों के लिए सातवें आसमान पर पहुँच जाने वाली हो जाती है। जिस कारण अन्य प्रदेशों से आये बहुत से नए युवक उल्टा क्रिया-कर्म शुरू कर देते हैं फिर उसका खामियाजा भी उठाते हैं। कुछ को हाथ पैर तुड़वाकर मुक्ति मिल जाती है तो वहीं कुछ जेल की हवा भी खाते हैं।
कई बार पुराने मजदूरों ने ननकू को समझाया कि चक्कर भी चलाना है तो किसी कुँवारी लड़की के साथ मत चलाओ। ये मिज़ोरम है पकड़े गये तो लेने के देने पड़ जाएंगे। पुलिस वाले यहाँ ले दे कर मामला रफा-दफा भी नहीं करते। कुंवारी लड़की के चक्कर में पड़ोगे तो शादी ही करनी पड़ेगी, और कोई दूसरा रास्ता नहीं मिलेगा। यहाँ के लोग लड़कियों और औरतों के मामलों में किसी ऐसे वैसे समझौते से मानते नहीं हैं। लेकिन ननकू के सिर पर तो सचमुच के इश्क का भूत सवार था वह कहाँ मानता।
एक सुबह सारे मजदूर अपनी नित्यक्रियाओं में तल्लीन इधर-उधर अस्त-व्यस्त घूम रहे थे तभी गांव का वीसीपी गाँव के ही कुछ अन्य लोगों के साथ मजदूरों के अड्डे पर आ धमका और ननकू की खोजबीन शुरू हो गई। उनके हाव-भाव से ही लग रहा था कि मामला गंभीर है।
"उस समय वीसीपी कोई और था क्या?" खुफिया अधिकारी ने उसे बीच में रोकते हुए सवाल किया।
"हाँ उस समय दूसरा था मैं तो अभी पिछले साल वाले में चुना गया हूँ।" वीसीपी ने बताया और कहानी को आगे बढ़ाया।
मसांगी को तीन महीने का गर्भ था और उसने इसके बारे में अपने घर पर सबको बता दिया था। गाँव वालों का मंतव्य साफ था कि ननकू शादी करे। या तो इसका अंजाम बहुत बुरा होने वाला था। यंग मिज़ो असोसिएशन के कुछ युवक ननकू की खातिरदारी करने के लिए भी दाव लेकर तैयार बैठे थे। ननकू को ढूढ़कर निकाला गया तो उसने बिना नानुकुर शादी करने के लिए हामी भर दी।
उसके बाद दोनों का चट मंगनी पट ब्याह भी तय हो गया। अगले इतवार को शादी की तारीख तय कर दी गई। पास्टर की निगरानी में दोनों की शादी की रस्म पूरी हो गई। जिसमें ननकू ने भी मिज़ो पारंपरिक रीति रिवाजों का पालन करते हुए शादी की रस्म अदायगी की। भोज के लिए दो सुअर काटे गए और सारे गाँव को खाने पर आमंत्रित किया गया। पास्टर ने नवदम्पति के सुखमय जीवन की प्रार्थना पढ़ी और अपना हस्ताक्षर करके शादी का प्रमाणपत्र दे दिया।
मसांगी की माँ ने शादी के पहले ही यह शर्त रख दी थी कि शादी के बाद वह गाँव छोड़कर कहीं नहीं जाएगी बल्कि ननकू ही यहाँ रहेगा। क्योंकि पहाड़ी आदमी कुछ भी कर सकता है लेकिन पहाड़ों को छोड़कर जाना मंजूर नहीं करता। पूर्वोत्तर राज्यों में अधिकतर आबादी अब भी ऐसी है जिसने अब तक ट्रेन नहीं देखा है। इस लिए उनके लिए गुवाहाटी पार करके आगे जाना शूली पर चढ़ जाने के बराबर होता है। दूसरी बात हिंदी खबरिया चैनलों के प्रभाव में मैदानी इलाकों की अच्छी खबरें तो वहाँ तक पहुंचती नहीं हैं उस कारण भी यहाँ के लोगों के मन में हिंदी भाषी राज्यों के प्रति एक डर बैठा हुआ है जो हजारों प्रयासों के बाद भी उन्हें अपना पहाड़ छोड़ने नहीं देता है।
यहीं रहने वाली बात को ननकू ने भी मंजूर किया था। मसांगी की माँ ने उनके रहने के लिए अपना पुराना घर भी दे दिया और देखते ही देखते मिम्बुंग में एक नया घर बस गया। काला अक्षर भैंस बराबर ननकू फर्राटेदार अंग्रजी बोलने वाली लुगाई पाकर फूला नहीं समा रहा था। हालांकि मसांगी कोई ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी पूछने पर तो वह सिर्फ आठवीं ही बताती थी। लेकिन जैसा कि मिज़ोरम में अक्सर पाया जाता है कि पांचवी के बाद बच्चे अंग्रेजी बोलना सीख ही जाते हैं। मसांगी भी उन्हीं में से एक थी।
साथी मजदूर ननकू को चिढ़ाते कि कुत्ता खाने वाली से शादी कर लिया है। लेकिन ननकू हँसकर रह जाता। इसी बात पर बॉर्डर रोड्स के जूनियर इंजीनियर साहब ने एक बार मजदूरों को बहुत डांटा था कि "किसी के खान पान और वेश-भूषा का ऐसे मजाक उड़ाना ठीक नहीं है। उनकी जगह अगर तुम्हारा जन्म भी मिज़ोरम में हुआ होता तो क्या तब भी तुम लोग कुत्ता नहीं खाते? किसकी मान्यता क्या है? कौन क्या खाता पीता है यह किसी ब्यक्ति पर नहीं बल्कि उसके परिवेश पर निर्भर करता है।"
फिलहाल दिन गुजरता रहा। ननकू दो बच्चियों का बाप बन चुका था। कुछ समय बाद बॉर्डर रोड्स का काम भी गाँव में समाप्त हो गया तो मजदूरों का कैम्प भी चला गया। वह काम छूटने के बाद ननकू ने गाँव में ही दुकान खोल ली और उनकी जिंदगी सुखमय चल रही थी। ननकू बाहर से सामान लाता और दुकान मसांगी सम्हालती थी।
ननकू साल में एक आध बार अपने गाँव भी जाता लेकिन हफ़्ते दस दिन में लौट आता था। लेकिन सुख को किसी न किसी की नज़र लग ही जाती है। मसांगी के साथ भी वही हुआ। ननकू एक बार अपने गाँव गया तो लौटकर नहीं आया। उसने जिस दिन आने की बात कही थी उसदिन बस तो आई लेकिन ननकू नहीं आया। मसांगी ने उससे संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन उससे कभी संपर्क नहीं हुआ। उसके गांव के पते पर कई चिट्ठियां भी भेजी गईं लेकिन उसका भी कोई उत्तर नहीं आया।
उधर ननकू की खोजबीन जारी रही। पूरा गाँव मसांगी की मदद भी करता रहा। लेकिन मसांगी धीरे-धीरे दिमागी तौर पर विचलित होती चली गई। हमेशा हंसते रहने वाली मसांगी ने बात करना भी छोड़ दिया। कोई कुछ भी बोले इसको कोई फर्क नहीं पड़ता था। कुछ कहने पर इसके ब्यवहार को देखकर ऐसा लगता जैसे इसने कुछ सुना ही न हो। मसांगी धीरे-धीरे अपना सब कुछ भूल चुकी थी। लेकिन नहीं भूली थी तो बस हर रोज़ बिना नागा आइजॉल से आने वाली बस में जाकर ये देखना कि शायद आज ननकू आया हो? ननकू को लापता हुए लगभग दस साल हो गये हैं लेकिन मसांगी का रोज बसअड्डे जाकर बस की तलाशी लेने का क्रम अनवरत जारी है। वह आज भी बस के आने से पहले वहाँ जाकर बैठी रहती है। एक एक यात्री को उतरते हुए देखती है। बस जब खाली हो जाती है तो वह अंदर घुसती है दाएं बाएं देखती है और फिर वापस लौट जाती है। मसांगी जिसे आप लंगड़ी कह रहे हैं उसकी बस इतनी सी कहानी है साहब जी!
वीसीपी ने अपनी बात खत्म की।
"उफ़्फ़….!" ख़ुफ़िया अधिकारी ने अंत में इतना ही कहा और नम आंखों से उठकर चल दिया।
दिवाकर पांडेय 'चित्रगुप्त'
ग्राम जलालपुर
पोस्ट कुरसहा
जिला बहराइच उत्तर प्रदेश 271821
मोबाइल 8118995166
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