पिता जी के जूते

पिता जी के जूते
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दादा जी को तो मैंने नहीं देखा लेकिन पिता जी के मुँह से उनके जूतों के बारे में बहुत बार सुना था। वे कहते थे, 'तुम्हारे दादा जी अपने जूतों के लिए बिलायत से चमड़ा मंगवाते थे, और फिर उसे बनाने के लिए मैसूर भिजवाते थे। मैसूर से जब वो बनकर आ जाता था तो उसमें रंग भरने के लिए वो आगरा जाता था। इतनी जगह घूम लेने के बाद  वो जूता उनके पैरों में जाता था। 

हर गरीब  के पास उसके पुरखों के रईसी वाले किस्से होते हैं। इस बात की जीती जागती मिसाल मेरे पिता जी भी थे।
हालांकि मैंने उन्हें जब भी देखा नंगे पैर ही देखा लेकिन जब भी उनसे कोई इस बाबत पूछता वह दादा जी के जूतों की चर्चा छेड़ देते थे।

मुझे याद है पिता जी के पास एकजोड़ी जूता ही था जिसमें कितनी जगह से सिलाई करवा रखी थी इसका ठीक ठीक पता करना बहुत मुश्किल था। हाँ लेकिन कई बार मरम्मत के लिए देते समय मोची की बात का ध्यान बहुत अच्छे से है। वह कहता था, "अरे अब इसे फेंक दो पंडित जी सिलाई की जगह भी नहीं बची है। और तला तो पूरा ही खत्म हो चुका है।" 

उसकी इस बात पर पिता जी खिसियानी सी हंसी हंसते हुए उकड़ू बैठ जाते और मोची को बताते कि उसे किस तरह से और कैसे सिले। मोची भी उनकी बातों को अनसुना करते हुए सुनता और बेमन से जूतों को उठाकर अपनी चटाई पर एक दो बार इधर से उधर पटकता फिर अपने लोहे के कोन में फंसाकर धागे में मोम रगड़ने लगता।

मैंने पिता जी को वे जूते पहने हुए कभी नहीं देखा था। हां उसे मरम्मत के लिए ले जाते हुए उसका साक्षी कई बार रह चुका था। शायद वे उसे कहीं रिश्तेदारी में जाते हुए पहनते हों? या सिर्फ मरम्मत करवाने के लिए ही रखा हो ये मेरे लिए हमेशा ही शोध का विषय था। हालांकि खेत की ओर जाते हुए उन्हें ललचाई नजरों से जूतों की ओर देखते हुए बार-बार देखा था। 

जैसे वो जूते न हों सिंहासन में विराजने वाले ठाकुर बाबा हों? जिनका काम नहाना-धुलाना भोग लगाना और फिर खा लेना भर ही हो। पिता जी रोज सुबह दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर उसको  कपड़े से पोछते हाथों से मलते उसके बाद थोड़ी देर धूप लगाकर ओसारे में जगह विशेष पर खोंस देते थे। यह उनकी रोज की दिनचर्या का हिस्सा होता था। 

समय जैसा भी हो गुजर ही जाता है। मेरा भी बचपन कब गुजर गया पता ही न चला। एक दिन कुछ परदेशी गांव आये थे। पिता जी उसी दिन से उनके आगे पीछे घूमकर उनको पटाने में लग गये। मामला जम गया तो मैं भी उन परदेशियों के साथ परदेशी हो गया।

छोटे मोटे काम मिले दो चार महीना निकला लेकिन मेरे दिमाग से पिता जी के जूतों का ख़याल न निकला। कमाकर वापस गाँव आने की सब तैयारियों में सबसे पहले उनके लिए जूता ही खरीदा। गाँव के ही कुछ अन्य लोगों के साथ वापस आने का टिकट बनाया और घर आ गया।

पीठ पर काला बैग और आंखों में काला चश्मा लगाकर गाँव की चौहद्दी में मेरा प्रवेश लगान पिक्चर वाले भुवन के स्टेडियम में प्रवेश से कोई कम न था। घर पहुंचा तो बैग को चारपाई पर पटक कर बाँस वाले मोढे पर बैठ गया। आँखों से काला चश्मा उतारकर अम्मा को दिया जिसे वो अंचरे से पोछने लगीं। पिता जी भी मेरे आने की खबर सुनकर खेत में कहीं काम कर रहे थे वहां से आये और जमीन पर ही उकड़ू बैठ गये। मैंने बैग खोलकर एक एक सामान निकालना शुरू किया। अंत में मैंने जैसे ही काला जूता बाहर निकाला पिता जी खड़े हो गये। 

मैंने जूते उनके हाथों में पकड़ाते हुए हुए कहा। 'ये आपके लिए है, बाटा कंपनी का... पूरे दो हजार रुपये का है।'

मेरी बातें सुनते हुए वे जूते को अपनी हथेली पर लेकर फिर बैठ गये और उसे घुमा फिरा कर देखने लगे। 

'नाप लो न इतनी दूर से बेटा लेकर आया है अब उसे ऐसे ही हाथ में लेकर बैठे रहोगे क्या?' अम्मा ने पानी का गिलास मुझे पकड़ाते हुए पिता जी को संबोधित किया। 

'अरे पहन लूंगा कहीं भागा जा रहा है क्या? इतना मंहगा जूता है इसे ऐसे ही गंदे पैरों के साथ पहन लूं क्या? अरे पहले नहाऊंगा फिर इसे पहन कर देख लूंगा।' 

पिता जी को अपनी बात न मनवा पाने की खीझ में अम्मा अंदर चली गईं। 

एक ही घर में अलग्योझा छोटे काका भी वहीं थोड़ी दूर दूसरी खटिया पर बैठे अपनी नंगी पीठ को जनेऊ की मदद से खुजला रहे थे और चोरी नजर से उन जूतों को देख रहे थे। पिता जी की नजरें उनसे मिलीं तो वे उठकर जाने लगे। 

उन्हें जाता देख पिता जी ने उन्हें बुलाया। 'इधर आओ तो लल्लन देखो जरा ये जूता तुम्हारे पैर में आता है कि नहीं?'

उनकी बात सुनकर काका तुरंत मुड़े, जूतों को उनके हाथ से लिया फ़टाफ़ट पहना और 'ये तो फिट्ट है' बोलते हुए अपने कमरे की ओर चले गये। 

मैंने चारपाई पर पड़े सामानों को संयमित करते हुए देखा कि पिता जी वही अपने पुराने फटे जूतों को निकालकर कपड़े से साफ कर रहे थे। अम्मा भी अजीब आवाज में कुछ बोल रही थीं जिसे पिता जी के अतिरिक्त कोई और सुन या समझ नहीं रहा था।

#चित्रगुप्त 

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