ग़ज़ल

आईना देख देख के शरमाये हुए दिन

तेरे बगैर होते हैं मुरझाये हुए दिन।


कैसे तेरे बगैर हैं ये बात न पूछो 

जख्मों से भरी रात है विष खाये हुए दिन।


जब से गए हो खूंटी से लटके ही हुए हैं

बिस्तर की तरह बांध के लटकाये हुए दिन


जब जब भी तेरी याद में सोती नहीं रातें

जमहाइयों में कटते हैं अलसाये हुए दिन।


हर ओर घूरने में हैं मनहूस निगाहें

सहमें हुए ढल जाते हैं बल खाये हुए दिन।


जाना है कहाँ ये भी बताते नहीं हैं कुछ 

मंजिल के लिए दौड़ में भरमाये हुए दिन।


कर लो हसीन कितनी भी अब वस्ल की रातें

भूले से भी भूलेंगे न तरसाये हुये दिन।

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