बाबू राव विष्णु पराड़कर
जितना जरूरी भाषा को परिष्कारित और संस्कारित करना है उससे कहीं ज्यादा जरूरी यह बात भी है कि भाषा से जनमानस का जुड़ाव बना रहे। वरना निर्जन में खिले फूल का क्या फायदा जिसे देखने वाला ही कोई न हो। आज की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि जो लिखने वाले हैं वही पढ़ने वाले भी हैं। आज के बीस साल पहले ट्रेन या बस में चलते हुए कोई न कोई ऐसा मिल ही जाता था जिसके हाथ में कोई मैगजीन या किताब हो। उन्हें देखकर मन अजीब किस्म के श्रद्धा भाव से भर जाता था। कि अच्छा ये पढ़ने वाले हैं। लेकिन दुःख होता है कि अब ऐसा देखने को नहीं मिलता है। मेरे नजदीकी रेलवे स्टेशन गोंडा में ही स्टेशन पर किताब की दो दुकानें थी जिसपर कोई भी मैगजीन ढूढने पर मिल जाया करती थी। व्हीलर तो कई थे जिनपर किताबें दूर से दिख जाया करती थीं। पठन-पाठन के इस दुरूह समय में संपादकाचार्य बाबू राव विष्णु पराड़कर जैसी पुस्तक का उपलब्ध होना ही अपने आप में बड़ी बात है। शोधपरक पुस्तकों का लेखन और पठन-पाठन अकादमिक क्षेत्रों के इतर न होना और आकदमियों में भी सिर्फ डिग्री लेने के लिए या पास होने के लिए होना भाषा के विकास में सबसे बड़ा बा...