ग़ज़ल
कहा मौत ने तो निकलना पड़ा।
किराए का घर था बदलना पड़ा।
मोहब्बत ने रिश्तों को जब आंच दी
जमे बर्फ को भी पिघलना पड़ा।
जहां चाह थी मुट्ठियों में रहे
वहां रेत जैसा फिसलना पड़ा।
गिराने की कोशिश में थे लोग सब
सम्हलते सम्हलते सम्हलना पड़ा।
पुकारा था अपनो ने उम्मीद से
थके पांव लेकर भी चलना पड़ा।
तड़प जिनकी है वो तो मिलते नहीं
कई ऐरों गैरों से मिलना पड़ा।
जरूरत के थोड़े से जल के लिए
गुलाबों को सारे मसलना पड़ा
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